कभी राजनीति में रहा दबदबा, अब हाशिए पर कैसे चले गए बिहार के ब्राह्मण

कभी राजनीति में रहा दबदबा, अब हाशिए पर कैसे चले गए बिहार के ब्राह्मण

Authored By: सतीश झा

Published On: Wednesday, June 4, 2025

Last Updated On: Wednesday, June 4, 2025

Brahmins in Bihar Politics: कभी बिहार की राजनीति में प्रभावशाली माने जाने वाले ब्राह्मण समुदाय की आज की स्थिति क्या है? जानिए कैसे समय के साथ राजनीति से उनका प्रभाव कम होता गया.
Brahmins in Bihar Politics: कभी बिहार की राजनीति में प्रभावशाली माने जाने वाले ब्राह्मण समुदाय की आज की स्थिति क्या है? जानिए कैसे समय के साथ राजनीति से उनका प्रभाव कम होता गया.

भारतीय राजनीति में जाति को खारिज नहीं किया जा सकता है. बिहार की राजनीति में एक दौर ऐसा भी था, जब ब्राह्मण समुदाय की गिनती सत्ता के सबसे प्रभावशाली जातीय वर्गों में होती थी. चाहे प्रशासनिक तंत्र हो, विधानमंडल हो या सत्ताधारी दलों के शीर्ष पद - ब्राह्मण नेता हर स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे. लेकिन समय के साथ यह स्थिति बदलती चली गई और आज ब्राह्मण समुदाय खुद को राजनीतिक रूप से हाशिए पर खड़ा महसूस कर रहा है. आखिर इसके पीछे की कहानी क्या है ?

Authored By: सतीश झा

Last Updated On: Wednesday, June 4, 2025

Brahmins in Bihar Politics: बीते जनगणना की रिपोर्ट के आधार पर बात करें, तो बिहार की जनसंख्या में टॉप 10 जातियों में कुछ अगड़ी जातियों की भी मजबूत उपस्थिति है. इनमें सबसे आगे हैं मुस्लिम समाज से आने वाले शेख, जो राज्य की कुल आबादी का 3.82 प्रतिशत हिस्सा हैं। इनकी संख्या 49,95,897 बताई गई है. वहीं, ब्राह्मण जाति की हिस्सेदारी 3.6575 प्रतिशत है, जिनकी कुल संख्या 47,81,280 है. इसके बाद राजपूत आते हैं, जिनकी हिस्सेदारी 3.4505 प्रतिशत है और आबादी 45,10,733 है. हालांकि अगड़ी जातियों में भूमिहार और मुस्लिम समाज के पठान समुदाय की भी गिनती होती है, लेकिन ये दोनों टॉप 10 की सूची में जगह नहीं बना सके हैं. भूमिहार समुदाय बिहार की कुल आबादी का 2.86 प्रतिशत है. वहीं पठान जाति की हिस्सेदारी केवल 0.7548 प्रतिशत है.

सामाजिक-सांख्यिकीय विश्लेषण

इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि अगड़ी जातियों का राज्य की राजनीति और समाज में प्रभाव तो है, लेकिन संख्या बल के आधार पर वे पिछड़ी व अतिपिछड़ी जातियों से पीछे हैं. इसके बावजूद ब्राह्मण, राजपूत और शेख जैसे समुदाय सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से आज भी प्रभावशाली माने जाते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि जातीय आंकड़ों का यह विश्लेषण भविष्य की राजनीति, आरक्षण नीति और सामाजिक योजनाओं के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है.

इतिहास में झांकें तो

स्वतंत्रता के बाद से लेकर 1980 के दशक तक बिहार में ब्राह्मणों का राजनीतिक वर्चस्व साफ दिखता था. डॉ. श्रीकृष्ण सिंह जब पहले मुख्यमंत्री बने उसके बाद से लेकर दर्जनों विधायक, मंत्री और संगठन के कर्ता-धर्ता ब्राह्मण समुदाय से आते थे. उस समय कांग्रेस की राजनीति में ब्राह्मणों की गहरी पकड़ हुआ करती थी.

समय बदला, समीकरण बदले

1990 के बाद बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय की अवधारणा के साथ मंडल राजनीति का उदय हुआ. लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे नेताओं के नेतृत्व में पिछड़ी और दलित जातियों का उभार हुआ. इसने ब्राह्मणों जैसे पारंपरिक उच्च जातियों के प्रभाव को धीरे-धीरे कम कर दिया.

आज की स्थिति

वर्तमान में बिहार विधानसभा में ब्राह्मण विधायकों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है. न तो कोई बड़ा ब्राह्मण चेहरा किसी राष्ट्रीय पार्टी में सक्रिय है और न ही किसी क्षेत्रीय दल में उन्हें नेतृत्व की भूमिका दी गई है. कांग्रेस, बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी – सभी प्रमुख दलों में ब्राह्मण नेताओं की भूमिका सीमित हो गई है.

क्यों हुए हाशिए पर?

  • नेतृत्व संकटः ब्राह्मण समाज से कोई ऐसा कद्दावर नेता सामने नहीं आया जो पूरे समुदाय को एकजुट कर सके.
  • राजनीतिक प्राथमिकताएं बदलींः दलों ने वोटबैंक की राजनीति में पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों को प्राथमिकता दी.
  • बिखरावः ब्राह्मण समाज एकजुट नहीं रहा और मतों का ध्रुवीकरण नहीं कर सका.
  • शहरीकरण और पेशेवर बदलावः समाज का एक बड़ा वर्ग राजनीति के बजाय शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासनिक सेवाओं और कॉरपोरेट सेक्टर की ओर मुड़ गया.

क्या भविष्य में बदल सकती है तस्वीर?

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यदि ब्राह्मण समाज सामाजिक रूप से संगठित होता है और नेतृत्व का कोई नया चेहरा उभरता है, तो यह वर्ग फिर से राजनीति में प्रभावी भूमिका निभा सकता है. इसके लिए जरूरी है कि समुदाय के भीतर संवाद, एकजुटता और राजनीतिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाए.

बिहार में ब्राह्मणों का राजनीतिक सफर ऐतिहासिक रहा है, लेकिन मौजूदा हालात उन्हें आत्मचिंतन के लिए मजबूर कर रहे हैं. दबदबे से लेकर हाशिए तक की यह यात्रा राजनीतिक चेतना, नेतृत्व की कमी और बदले सामाजिक समीकरणों की गाथा है. सवाल यह है कि क्या ब्राह्मण समाज फिर से राजनीति के केंद्र में लौट पाएगा?

About the Author: सतीश झा
सतीश झा की लेखनी में समाज की जमीनी सच्चाई और प्रगतिशील दृष्टिकोण का मेल दिखाई देता है। बीते 20 वर्षों में राजनीति, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाचारों के साथ-साथ राज्यों की खबरों पर व्यापक और गहन लेखन किया है। उनकी विशेषता समसामयिक विषयों को सरल भाषा में प्रस्तुत करना और पाठकों तक सटीक जानकारी पहुंचाना है। राजनीति से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों तक, उनकी गहन पकड़ और निष्पक्षता ने उन्हें पत्रकारिता जगत में एक विशिष्ट पहचान दिलाई है
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