बास्केटबॉल में प्रशांति सिंह (Prashanti Singh) तराश रहीं नई प्रतिभाएं

Authored By: अंशु सिंह, वरिष्ठ लेखिका और पत्रकार

Published On: Friday, June 28, 2024

Categories: Success Stories

Updated On: Friday, June 28, 2024

prashanti singh taking arjun award from president

वर्ष 2002 में भारतीय महिला बास्केटबॉल टीम को प्रशांति सिंह के रूप में एक ऐसी उम्दा खिलाड़ी मिलीं, जिन्होंने टीम का नेतृत्व संभालने के बाद महिला बास्केटबॉल को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। राष्ट्रीय के अलावा विश्व चैंपियनशिप, एशियन गेम्स आदि में सिल्वर, गोल्ड मेडल की झड़ी लग गई। इस कल्पनातीत सफलता, खेल के प्रति उनके बहुमूल्य योगदान एवं समर्पित भावना को देखते हुए प्रशांति सिंह को अर्जुन पुरस्कार एवं पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 2017 में उन्होंने सक्रिय खेल से विदाई ले ली। लेकिन आज वे एक नई भूमिका में नए खिलाड़ियों के चयन से लेकर उन्हें तराशने की बड़ी जिम्मेदारी संभाल रही हैं। भारतीय महिला बास्केटबॉल टीम की पूर्व कैप्टन एवं वर्तमान में खेलो इंडिया, ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ स्पोर्ट्स आदि में बतौर स्पोर्ट्स एक्सपर्ट अपनी सेवाएं दे रहीं प्रशांति सिंह का कहना है कि बास्केटबॉल को प्रोत्साहित करने के लिए अधिक से अधिक घरेलू टूर्नामेंट्स आयोजित करने होंगे। देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है।

इस लेख में:

कम खिलाड़ी होते हैं, जिनका करियर विवादों से परे रहता है। प्रशांति सिंह की मानें, तो उनका बेदाग करियर उनके लिए सबसे बड़े सम्मान की बात रही है। वह कहती हैं, ‘मुझे इस बात का बहुत गर्व है। यह किसी सम्मान से कम नहीं है। लेकिन जब आपकी मेहनत को मान्यता मिलती है, तो जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। बेशक आज मैं ग्राउंड पर नहीं उतरती। लेकिन खेल से जुड़े अन्य पहलुओं एवं मुद्दों पर उतनी ही शिद्दत व गंभीरता से काम करती हूं। मुझे लगता है कि जिन बाधाओं एवं संघर्षों से मुझे गुजरना पड़ा, उनका सामना दूसरे खिलाड़ियों को न करना पड़े।‘ विभिन्न खेल संगठनों की सदस्य होने के नाते प्रशांति की कोशिश रहती है कि अब तक के अपने अनुभवों का ज्यादा से ज्यादा लाभ युवा खिलाड़ियों को दे सकें। उनके विकास के लिए बेहतर अनुशंसाएं कर सकें। उनका कहना है, ‘खेल की दुनिया बदल रही है। नई-नई तकनीक का समावेश हो रहा है। प्रतिस्पर्धा बढ़ने से डोपिंग की समस्या भी गंभीर होती जा रही है। इसलिए खिलाड़ियों को जितना जागरूक, जितना ज्यादा उन्हें एक्सपोजर दिया जाएगा, उतना अच्छा।’

बढ़ानी होगी ढांचागत सुविधाएं

बास्केटबॉल इंडोर एवं आउटडोर दोनों स्थानों पर खेला जाता है। विदेशी टूर्नामेंट्स ज्यादातर इंडोर में होते हैं। लेकिन भारत में कुछेक इंडोर स्टेडियम में ही ऐसी विश्वस्तरीय सुविधाएं उपलब्ध हैं, जिस कारण यहां खिलाड़ियों के चोटिल होने की आशंका अधिक रहती है। प्रशांति का कहना है कि, ‘अगर हम अपने खेल एवं रैंकिंग में सुधार लाना चाहते हैं, तो ढांचागत सुविधाओं को बढ़ाना होगा। बास्केटबॉल को प्रोत्साहित करने के लिए ज्यादा से ज्यादा घरेलू टूर्नामेंट्स आयोजित करने होंगे। क्रिकेट बोर्ड की तरह यहां भी एक व्यवस्था बनानी होगी, जिससे कि खिलाड़ियों को किसी प्रकार का आर्थिक नुकसान न हो। उन्हें खेलने का भरपूर अवसर मिले। लीग्स शुरू करने होंगे, जिससे नई प्रतिभाओं को मंच मिल सके। सरकार के अलावा कॉरपोरेट्स को सहयोग करना होगा।‘ वैसे, प्रशांति को विश्वास है कि देश में खेलों को लेकर जो उत्साहवर्धक वातावरण तैयार हुआ है, वह निश्चित तौर पर एक सकारात्मक बदलाव लाएगा।

सोशल मीडिया (Social Media) ने पैदा की आइडेंटिटी क्राइसिस

बास्केटबॉल एवं अन्य खेलों में लड़कियों की भागीदारी बढ़ रही है। प्रशांति की मानें, तो महिला बास्केटबॉल का भविष्य भी उज्ज्वल है। हालांकि, वर्ष 2007 के बाद आठ साल तक फीबा विश्व रैंकिंग में पांचवें पायदान पर रहने वाली भारतीय महिला बास्केटबॉल टीम की रैंकिंग लगातार नीचे जा रही है। इस पर प्रशांति कहती हैं, ‘दरअसल कोविड महामारी ने टीम स्पोर्ट्स को काफी नुकसान पहुंचाया। जहां एकल स्पोर्ट्स में खिलाड़ी खुद से ट्रेनिंग कर सकते हैं या मैच खेल सकते हैं। टीम स्पोर्ट्स के साथ वैसा संभव नहीं। वहां एक सिस्टम के तहत सब चलता है। टूर्नामेंट्स चाहिए होते हैं, जो महामारी के दौरान नहीं मिले। इसके अलावा, कई युवा खिलाड़ियों ने बीच में खेल छोड़ दिया। जब पूरी टीम ही नहीं होगी, तो टूर्नामेंट कैसे खेले जाएंगे? बात यहीं खत्म नहीं हुई। सोशल मीडिया से एक आइडेंटिटी क्राइसिस एवं भटकाव पैदा हुआ है। युवा खिलाड़ी छोटी-छोटी उपलब्धियों के वीडियो को मिलने वाले लाइक्स से संतुष्ट होने लगे हैं। एक खिलाड़ी के लिए यह स्थिति काफी खतरनाक होती है, जब उसमें खुद को चुनौती देने एवं स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करने की भूख खत्म हो जाए। इस तरह, इन सबका असर रैंकिंग पर पड़ा। हालांकि, मुझे उम्मीद है कि आने वाले समय में इसमें अवश्य सुधार आएगा।‘

आर्थिक असुरक्षा (Economic Insecurity) है बड़ी चुनौती

किसी भी महिला के लिए खेल में भविष्य बनाना आसान नहीं होता। अनेक प्रकार के संघर्षों के बीच उन्हें अपना आत्मविश्वास बनाए रखना होता है। सेल्फ-मोटिवेटेड रहना होता है। बास्केटबॉल जैसे टीम स्पोर्ट्स में महिला खिलाड़ियों के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में प्रशांति का कहना है, ‘सबसे प्राथमिक चुनौती आती है मान्यता न मिल पाने की। सबको बराबर मान लिया जाता है। इससे कई बार आत्मविश्वास डगमगा जाता है। दूसरी चुनौती है आर्थिक असुरक्षा। फिजिकल स्पोर्ट्स में खिलाड़ियों के चोटिल होने का खतरा ज्यादा होता है। अगर उसके पास अच्छी नौकरी नहीं होती है, तो पूरा करियर दांव पर लग जाता है। यानी महिला खिलाड़ियों के पास आज भी नौकरी के सीमित अवसर हैं। कुछेक कॉरपोरेट्स या सरकारी संस्थाएं हैं जिनकी अपनी महिला बास्केटबॉल टीम है, जिस आधार पर उन्हें नौकरी मिल सके। कह सकते हैं कि आधी आबादी के समक्ष पुरुषों के बराबर मौके उपलब्ध नहीं हैं।‘

संघर्ष के बीच तय की मंजिल

prashanti singh basketball player

बेटियां बेमिसाल होती हैं। उन्हें अपने सपनों को जीने की आजादी मिले, तो वे विपरीत परिस्थितियों एवं चुनौतियों के बीच भी ऊंची से ऊंची उड़ान भर सकती हैं। वाराणसी के मध्यवर्गीय परिवार से आने वाली प्रशांति ऐसी ही एक बेमिसाल बेटी हैं, जिन्होंने छोटे से शहर से निकलकर खुद को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बेहतरीन बास्केटबॉल खिलाड़ी के तौर पर स्थापित किया। आंकड़े बताते हैं कि उनका करियर कितना सुनहरा एवं शानदार रहा है। वे पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं, जिन्होंने 2006 के कॉमनवेल्थ गेम्स एवं 2010 व 2014 के एशियन गेम्स में टीम का प्रतिनिधित्व किया और मेडल भी दिलाए। इतना सब हासिल करने पर कैसा लगता है, इस पर प्रशांति कहती हैं, ‘मानो जमीन से आसमां में उड़ने की यात्रा रही है मेरी।

जिस सामाजिक परिवेश से मैं आती हूं, वहां शाम के बाद लड़कियों का घर से निकलना ही असुरक्षित माना जाता था। एक उम्र के बाद शादी करनी होती थी। खेलों में करियर बनाने की कल्पना करना, तो दूर की कौड़ी थी। सबकी यही चिंता होती थी कि अगर कोई ऊंच-नीच, गंभीर चोट आदि आ गई, तो लड़की का रिश्ता कैसे जुड़ेगा? फिर आर्थिक स्थिरता का क्या होगा? लेकिन मैं और मेरी पांच बहनें खुशनसीब रहीं कि हमें प्रगतिशाली विचारों वाले मात-पिता मिले। सीमित आय होने के बावजूद उन्होंने बेटियों को बोझ नहीं समझा और हमारे ऊपर किसी प्रकार का दबाव डाला।उनके सहयोग से ही हम चार बहनों ने अच्छी शिक्षा हासिल की और बास्केटबॉल में करियर बनाया। ‘सिंह सिस्टर्स’ के नाम से एक नई पहचान बनी। मैं जमाने की परवाह किए बगैर शाम के चार से छह बजे ग्राउंड पर प्रैक्टिस करने व खेलने जाती थी। वही सबसे ज्यादा खुशी देता था।‘

जब चला भारतीय महिला बास्केटबॉल (Indian Women’s Basketball) का जादू

महिला बास्केटबॉल में वे किसी सितारे की भांति उभरीं। टीम पर भी उनका प्रभाव बखूबी देखने को मिला। वर्ष 2009 में पहली बार विदेशी धरती पर भारतीय महिला खिलाड़ियों का जादू चला। वियतनाम में हुए तीसरे एशियन इंडोर गेम्स में टीम ने सिल्वर मेडल प्राप्त किया। इसके पश्चात् 2011 में श्रीलंका में हुए साउथ एशियन बीच गेम्स में भी टीम ने स्वर्ण पदक हासिल किया। वहीं, नेशनल चैंपियनशिप्स में सीनियर लेवल पर सबसे ज्यादा मेडल्स लेने का राष्ट्रीय रिकॉर्ड भी इनके नाम दर्ज है। यह सब प्रशांति ने सिर्फ अपनी कड़ी मेहनत, हौसले एवं समर्पण भाव के जरिये प्राप्त किया। उनके सामने कोई रोल मॉडल नहीं था। आज वह खुद एक मिसाल बन चुकी हैं। कहती हैं, ‘पहले के दौर के मुकाबले सामाजिक चुनौतियां कम हुई हैं। जागरूकता बढ़ गई है। खेलों को अब शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी समझा जाने लगा है। आम जन की मानसिकता में आए इस सुखद परिवर्तन से बनारस ही नहीं, अन्य छोटे शहरों की बेटियां भी विभिन्न खेलों में आगे आ रही हैं। यही भविष्य के प्रति उम्मीद जगाती है।‘ प्रशांति का कहना है कि खेलो इंडिया योजना के जरिये शहरी, ग्रामीण एवं कस्बाई क्षेत्रों से आने वाले खिलाड़ियों को आगे बढ़ने का मौका दिया जाना एक सकारात्मक कदम है।

खेल ने बनाया परिपक्व इंसान

कहते हैं कि एक अच्छा एवं सच्चा खिलाड़ी हार-जीत से विचलित नहीं होता। दोनों ही स्थितियों में वह सबक लेकर आगे बढ़ता है। प्रशांति भी इससे सहमति रखती हैं। वे कहती हैं, ‘स्पोर्ट्स ने मुझे एक परिपक्व इंसान बनाया है। जीवन में स्थिरता इसकी वजह से ही आई है। मेरी मानें, तो एथलीट बनता ही वही है जो भावनात्मक इंसान हो। जिसमें जुनून हो। दृढ़ निश्चय हो। क्योंकि वह कहीं न कहीं एक अनिश्चित चीज का पीछा करते रहते हैं। उनके सामने लक्ष्य होता है, लेकिन उस तक पहुंचने के लिए जो प्रयास करने होते हैं, जिस रास्ते पर चलना होता है, उसमें उतार-चढ़ाव आ सकते हैं। उसके लिए अपने मन से तैयार रहना पड़ता है। क्योंकि क्या पता कब जीरो से शुरुआत करनी पड़े।‘ देश की तमाम महिला खिलाड़ियों को प्रशांति यही कहना चाहती हैं कि अपने भटकाव को कम करें। फोकस होकर खेल पर ध्यान दें। समय बर्बाद न करें। उसका बेस्ट इस्तेमाल करें। आज के दौर में महिलाओं का आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक सभी रूपों में मजबूत होना जरूरी है।

बातचीत : अंशु सिंह

पिछले बीस वर्षों से दैनिक जागरण सहित विभिन्न राष्ट्रीय समाचार माध्यमों से नियमित और सक्रिय जुड़ाव व प्रेरक लेखन।

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