आपातकाल(Emergency): काले, घनेरे, अंधियारी रातों के 21 महीने

Authored By: BN Verma, Political Analyst

Published On: Tuesday, June 25, 2024

Categories: National

Updated On: Thursday, June 27, 2024

अभी 28 साल ही हुए थे देश को आजादी मिले और स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय बनकर आपातकाल उपस्थित हो गया। उस समय लोकतंत्र के लिए उठने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचल दिया गया था। यह दमनचक्र 21 महीने तक जारी रहा।

हाईलाइट:

  • नाखून उखाड़ने से लेकर पेशाब पिलाने जैसी क्रूरता का उद्देश्य जनता के मन में सरकार का डर पैदा करना और प्रतिरोध की भावना को कुचलना था।
  • जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी और चाटुकार नेता व अफसर राजा का बाजा बजा रहे थे। उस दौर में सत्ता का बेरहमी से दुरुपयोग हुआ था।
  • आपातकाल के दौरान डेढ़ लाख से अधिक लोगों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिया गया।
  • एक साल के भीतर देशभर में 83 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई।
  • इनमें 16 साल के किशोर से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक शामिल थे।

आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है। उस समय लोकतंत्र के लिए उठने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचल दिया गया था। 25 जून 1975 की काली रात से शुरू हुआ दमनचक्र निर्बाध रूप से 21 महीने तक जारी रहा।

आपातकाल में इंदिरा का अत्याचार

आपातकाल भारतीय लोकतंत्र पर किया गया ऐसा कुठाराघात है, जिसकी याद करने मात्र से शरीर में सिहरन दौड़ जाती है। यह समय लोकतंत्र के निलंबन, नागरिक स्वतंत्रता के ह्रास और आम लोगों पर अकल्पनीय अत्याचारों के लिए इतिहास में दर्ज है। आपातकाल के दौरान, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Prime Minister Indira Gandhi) के नेतृत्व में राज्यसत्ता ने जनता पर भयंकर अत्याचार किए। डेढ़ लाख से अधिक व्यक्तियों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार करके जेलों में ठूंस दिया गया। सरकार की नीतियों के विरोध को निर्ममता से कुचलने के लिए मीसा यानी आंतरिक सुरक्षा अधिनियम की आड़ में बिना मुकदमे के अनिश्चित काल तक हिरासत में रखने का रास्ता निकाला गया।

संविधान (Constitution) खतरे में नहीं बल्कि कैद में था

हिरासत केंद्रों से यातना और दुर्व्यवहार के रोंगटे खड़े करने वाले किस्से सामने आए। शासन को चुनौती देने वालों को शारीरिक हिंसा, यौन उत्पीड़न और मनोवैज्ञानिक यातना झेलनी पड़ी। नाखून उखाड़ने से लेकर पेशाब पिलाने तक की बेलगाम पुलिसिया आतंक ने पूरे देश में त्राहि-त्राहि मचा दी। क्रूरतापूर्ण इन कृत्यों का उद्देश्य जनता के मन में सरकार का डर पैदा करना और प्रतिरोध की भावना को कुचलना था। संविधान के परखच्चे उड़ाते हुए देश को पूरी तरह एक जंगल में तब्दील कर दिया गया था। संविधान को कैद कर लिया गया था। जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी और चाटुकार नेता तथा अफसर राजा का बाजा बजा रहे थे।

अंग्रेज शासन की याद दिलाया

आपातकाल में आम लोगों के साथ जैसा दुर्व्यवहार हुआ वह अंग्रेजों की शासनकाल की याद दिलाने वाला था। उसी दौरान जबरन नसबंदी का एक राज्य प्रायोजित दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण कार्यक्रम भी शुरू किया गया। जनसंख्या नियंत्रण के लिए गरीब और हाशिए के समुदायों के स्त्री-पुरुषों की उनकी सहमति या उचित चिकित्सा देखभाल के बिना ही जबरदस्ती नसबंदी की गई। रिकॉर्ड पर तो केवल वही लोग और घटनाएं आए, जिनकी चर्चा हुई, अन्यथा गांव-गांव में पुलिस का निरंकुश शासन चल रहा था। अदालतें निलंबित थी तो पुलिस लगभग खुदा बन चुकी थी।

मीसा एक्ट (Misa Act), काला कानून

लोगों को कुछ भी बोलने पर मीसा एक्ट लगाकर बंद कर दिया जाता था। अनुशासन के नाम पर पुलिसिया आतंक का खौफ चारों तरफ दिखता था। पत्रकारिता ने भी आपातकाल का कहर झेला। सबसे पहले अखबारों की बिजली काटी गयी। किसी ने कुछ खिलाफ लिखने की जुर्रत की तो उस पर भयंकर कार्रवाई हुई। जेल में ठूंसा गया। बाद में अधिकारियों को खबरों को सेंसर करने का भी अधिकार दिया गया। असंतोष को दबाने के लिए सेंसरशिप को एक शक्तिशाली हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। कोई भी खबर बिना सरकार की मर्जी के नहीं छप सकती थी।

संजय गांधी (Sanjay Gandhi) का पांच सूत्री एजेंडा

एक तरफ देशभर में सरकार अपने विरोधियों पर जुल्म कर रही थी तो दूसरी तरफ इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्री एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया था। पांच सूत्रीय कार्यक्रम में सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। एक रिपोर्ट के अनुसार इस दौरान देशभर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। नसंबदी ने घर-घर में दहशत फैलाने का काम किया। एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ एक साल के भीतर देशभर में 83 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई। इनमें 16 साल के किशोर से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक शामिल थे। यही नहीं गलत ऑपरेशन और इलाज में लापरवाही की वजह से करीब दो हजार लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी थी।

कुल मिलाकर आपातकाल ने मौलिक अधिकार को जिस तरह निरस्त किया, वह आज भी लोगों के मन में भय जगाता है। जिन्होंने भी 75 का दंश झेला है। सुना है या भोगा है। वे कभी इस तरह की बात नहीं कर सकते। यह तो ‘आपातकाल’ को हल्का बनाना हुआ। उस काले दौर को बिल्कुल उथला, बिल्कुल छिछला कर देना हुआ। तब कुछ भी बोलना मना था। आज खुल्लमखुल्ला प्रधानमंत्री तक को अपशब्द बोलकर भी लोग आजाद घूम रहे हैं। फिर भी वर्तमान शासनकाल को अघोषित आपातकाल बताने से नहीं चूकते। जो लोग आज के दौर की तुलना ‘आपातकाल’ से करते हैं वह या तो बेहद चालाक हैं या लोगों को मूर्ख समझते हैं

About the Author: BN Verma, Political Analyst
दशकों के अनुभव से सम्पन्न, प्रभावशाली व निष्पक्ष राजनीतिक विश्लेषण और मार्गदर्शन प्रदान करने में सक्षम।

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