

Delhi Assembly Election 2025 information in Hindi: जाने दिल्ली विधानसभा चुनाव से जुड़ी नवीनतम खबरें, अहम् जानकारियाँ, ऐतिहासिक तथ्य, और चुनाव से जुड़े विवरण और अपडेट।
इस पृष्ठ पर जानें Delhi Assembly Election 2025 से जुड़ी हर नई और आवश्यक जानकारी—चुनाव प्रक्रिया, प्रमुख उम्मीदवार, ऐतिहासिक पहलू, चुनावी मुद्दे, और मतदान के आंकड़े। साथ ही, दिल्ली विधानसभा चुनाव के पिछले परिणामों, मतदान प्रतिशत और विशेषज्ञों की राय का विश्लेषण भी यहाँ प्रस्तुत किया गया है। यह पृष्ठ आपकी चुनावी जानकारी का संपूर्ण स्रोत बनेगा, इसलिए इसे बुकमार्क करना न भूलें, ताकि चुनाव से संबंधित हर अपडेट सबसे पहले आप तक पहुंचे! चलिए, लोकतंत्र के इस पर्व को गहराई से समझने और जानने के लिए इस पेज को अंत तक पढ़ते हैं! 🗳️✨

Delhi Assembly Elections History🌍✨
राजधानी दिल्ली से निकला निर्देश, आदेश और संकेत देशभर के लोगों को प्रभावित करता है। दिल्ली वह जगह है, जहां पर होने वाली प्रत्येक राजनीतिक हलचल का असर कश्मीर से कन्याकुमारी तक होता है। कई दशकों से राजनीतिक दल प्रयासरत हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल हो जाए, लेकिन तकनीकी अड़चन और नेताओं की इच्छाशक्ति के अभाव में यह संभव नहीं हो पा रहा है। पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं होने के चलते दिल्ली के मुख्यमंत्री के पास शक्तियां बेहद सीमित हैं। बावजूद इसके दिल्ली का सीएम होना अहम है। यही वजह है कि भले ही दिल्ली देश के छोटे और अपूर्ण राज्य में शुमार है, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव पर देशभर की नजरें रहती हैं। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि 3 दशक से भी कम समय में दिल्ली को कई मुख्यमंत्री मिल चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी हो या रिकॉर्ड समय तक शासन करने वाली कांग्रेस या फिर आम आदमी पार्टी, तीनों ही राजनीति दल दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हैं। कहा जाता है कि दिल्ली कई बार उजड़ी और बसी है। वहीं, इसके इतिहास की तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव का इतिहास (Delhi Assembly Elections History) भी बेहद दिलचस्प है। गलगोटियाज टाइम्स की इस स्पेशल स्टोरी में हम बता रहे हैं दिल्ली विधानसभा चुनाव के दिलचस्प इतिहास के बारे में।
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Earlier Pictures Of Delhi Assembly Elections
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Delhi Assembly Elections: दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में कई सीटों पर कड़ी टक्कर होगी. इनमें कई सीटों पर दिग्गज प्रत्याशी मैदान में है. नई दिल्ली सीट पर अगर अरविंद केजरीवाल जीते तो सीएम पद के दावेदार होंगे.
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दिल्ली में बुधवार को 70 विधानसभा सीटों के लिए मतदान हो रहा है. चुनाव आयोग इस बार पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में अधिक मतदान प्रतिशत की उम्मीद कर रहा है. 2020 के चुनाव में 62.59% मतदान हुआ था, लेकिन इस बार सुरक्षा और सुविधाओं को बढ़ाकर मतदाताओं को घर से निकालने की कोशिश की जा रही है.
दिल्ली विधानसभा चुनाव (Delhi Assembly Election 2025) के लिए बुधवार को एक ही चरण में मतदान होगा. राजधानी की सभी 70 विधानसभा सीटों पर कुल 699 उम्मीदवार चुनावी मैदान में हैं. इस बार का चुनाव खास है, क्योंकि लोकसभा चुनाव में साथ रही INDI गठबंधन की पार्टियां अब एक-दूसरे के खिलाफ चुनावी मैदान में हैं.चुनाव आयोग ने निष्पक्ष और शांतिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करने के लिए चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था की है.
All About Delhi Assembly Election – दिल्ली विधानसभा चुनाव से जुड़ी अहम जानकारियां, ऐतिहासिक तथ्य, चुनाव से जुड़े विवरण:

कब हुआ था दिल्ली में पहली बार विधानसभा चुनाव?
दिल्ली में विधानसभा चुनाव का इतिहास बेहद रोचक है। दिल्ली में पहला विधानसभा चुनाव मार्च, 1951 में हुआ था, लेकिन यह जानकारी बहुत कम लोगों को होगी कि अगले चुनाव के लिए राजधानी के लोगों को 4 दशक तक इंतजार करना पड़ा। इतिहासकारों की मानें तो 17 मार्च, 1952 को दिल्ली राज्य विधानसभा का गठन पहली बार पार्ट-सी राज्य सरकार अधिनियम, 1951 के अंतर्गत हुआ, लेकिन 1 अक्टूबर, 1956 को इसे हटा दिया गया। 1951 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में राजधानी के लोगों को पहली बार अपना प्रतिनिधि चुनने का मौका मिला था। उस दौरान भी दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश ही था और विधानसभा का गठन सिर्फ एक निकाय के रूप में हुआ था। 1951 में दिल्ली की 48 सीटों पर विधानसभा चुनाव हुआ था। दरअसल, इस दौरान दिल्ली में अंतरिम विधानसभा की व्यवस्था थी और सही मायनों में सिर्फ 42 सीटों पर चुनाव हुए थे। उस समय एकल सदस्यों वाली विधानसभा सीटें 36 थीं, जबकि 6 सीटें सिर्फ 2 सदस्यों वाली थीं। इस तरह 36 सीटों पर एक ही उम्मीदवार विधायक चुना गया। इसके अलावा, 6 सीटों पर 2-2 उम्मीदवार चुनाव जीतकर दिल्ली विधानसभा पहुंचे थे। इस गणित से दिल्ली विधानसभा चुनाव में कुल 48 सदस्य चुने गए थे।

पहले चुनाव में कांग्रेस का दिखा था दम
दिलचस्प यह है कि रीडिंग रोड सीट से कांग्रेस और जनसंघ दोनों ही राजनीति दल के प्रत्याशी जीते थे। इस चुनाव के करीब 4 साल बाद दिल्ली विधानसभा भंग कर दी गई और यहां प्रशासनिक व्यवस्था भी बदल गई। इस दौरान कांग्रेस ने दो-दो सीएम बदले। चुनाव में दमखम की बात करें तो इस दौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ही प्रभाव था। पहले चुनाव में कांग्रेस के मुकाबले कोई प्रभावी राजनीतिक दल मुकाबले में नहीं था। इस चुनाव में छोटे और स्थानीय दल ही मैदान में उतरे और उन्होंने कांग्रेस को टक्कर भी दी। चुनाव परिणाम आए तो कांग्रेस को 39 सीटों पर जीत मिली. हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस जैसी मजबूत पार्टी के सामने कई ऐसे उम्मीदवारों ने जीत हासिल की, जो छोटे दलों से संबंध रखते थे या फिर स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरे थे। यह अलग बात है कि 48 में से 39 सीटें जीत कर कांग्रेस ने अपना दबदबा जरूर साबित किया और दिल्ली की सत्ता पर भी काबिज हुई। दिल्ली में हुए पहले विधानसभा चुनाव में सिर्फ 5,21,766 मतदाता थे और पहले चुनाव में 58.52 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने वोट डाले थे। वर्तमान में दिल्ली में डेढ़ करोड़ से अधिक मतदाता हैं।

4 दशक बाद हुआ दिल्ली में फिर चुनाव
1951 में हुए चुनाव के बाद वर्ष 1956 में दिल्ली विधानसभा को भंग कर दिया गया। इसके बाद दिल्ली के लोगों को विधानसभा चुनाव के लिए 40 साल से अधिक समय तक इंतजार करना पड़ा। वर्ष 1992 में परिसीमन के बाद 1993 में दिल्ली विधानसभा कराए गए। दरअसल, वर्ष 1991 के दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी अधिनियम के तहत विधानसभा बनी थी। इसके बाद पहला चुनाव हुआ। वक्त बदला तो दिल्ली की राजनीति भी बदल गई। 4 दशक बाद दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस को टक्कर देने के लिए भारतीय जनता पार्टी खड़ी थी। भाजपा ने वर्ष 1993 में नई गठित विधानसभा के लिए हुए चुनाव कांग्रेस को शिकस्त देकर दिल्ली की सत्ता कब्जा ली। दिल्ली विधानसभा चुनाव 1993 में भाजपा ने 70 में से 49 सीटें जीती थीं। भाजपा को इस चुनाव में 42.80 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे, जबकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को 34.50 प्रतिशत ही वोट मिले। इसी दौर में सक्रिय हुए जनता दल ने 12.60 प्रतिशत वोटों के साथ अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी। दिल्ली के दिग्गज भाजपा नेता मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने। भाजपा ने यह चुनाव दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे पर लड़ा था। मदन लाल खुराना खुद मोतीनगर से चुनाव लड़कर विधानसभा पहुंचे थे और प्रचार के दौरान उन्होंने दिल्ली को पूर्ण राज्य दिलाने का वादा किया था। कहा जाता है कि पंजाबी समुदाय के साथ भाजपा को वैश्य समुदाय का भी साथ मिला और वह यह चुनाव आसानी से जीतने में कामयाब रही।

1998 चुनाव में भाजपा हुई चित
दिल्ली विधानसभा चुनाव 1993 में धमाकेदार जीत हासिल करने वाली भाजपा 5 साल के शासन में ही पस्त हो गई। 1998 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार हुई। 1998 का चुनाव कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में लड़ा था। यह अलग बात है कि उस समय दिल्ली की सीएम सुषमा स्वराज थीं और कांग्रेस ने भी महिला सीएम उम्मीदवार मैदान में उतारा था। बाजी कांग्रेस के हाथ लगी। 70 सीटों में से कांग्रेस को 52 सीटें हासिल हुईं, जबकि सत्ता गंवाने वाली भाजपा को सिर्फ 15 सीटें ही मिलीं। जनता दल को सिर्फ एक सीट और 2 निर्दलीय उम्मीदवारों को भी जीत हासिल हुई। भाजपा के शासनकाल में उपहार सिनेमा कांड के अलावा वजीराबाद में यमुना में स्कूली बच्चों से भरी बस का गिरना बड़ी घटनाओं में शामिल रही। इसके साथ-साथ मिलावटी तेल से फैली ड्रॉप्सी महामारी ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया था। साहिब सिंह सरकार अपने कार्यकाल में बहुत परेशान थे। चुनावी वर्ष यानी 1998 में ही त्योहारों के सीजन के दौरान दिल्ली में प्याज की किल्लत हो गई। अचानक ही दिल्ली में प्याज 60-80 रुपये प्रति किलो तक बिकने लगा। इससे दिल्ली में जनता नाराज नजर आई और इसी का परिणाम रहा कि दिल्ली चुनाव में भाजपा हार गई। राजनीतिक पंडितों के अनुसार, दिल्ली में प्याज समेत कई मुद्दे थे, लेकिन भाजपा की हार के लिए अंदरूनी गुटबाजी भी जिम्मेदार थी।

2003 और 2008 भी कांग्रेस ने मारी बाजी
1998 में सत्ता गंवाने वाली भाजपा ने दिल्ली विधासभा चुनाव 2003 में खूब जोर लगाया, लेकिन असफलता ही हाथ लगी। शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस दिल्ली में अपनी जड़ें जमा चुकी थी। बतौर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कई लोकलुभावनी योजनाएं लागू कीं, जिसका असर रहा कि कांग्रेस को जनता ने भर-भर कर वोट दिए। वर्ष 2003 हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 47 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा को सिर्फ 20 सीटें। 1998 विधानसभा की तुलना में कांग्रेस की 5 सीटें घटीं तो भाजपा की 5 सीटें बढ़ीं. कुल मिलाकर शीला दीक्षित के कार्यों का असर रहा कि कांग्रेस को लगातार दूसरी बार जीत मिली। इसी तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव 2008 में भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी और कांग्रेस ने फिर बाजी मार ली। इस चुनाव में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन करते हुए 23 सीटें हासिल कीं और बहुजन समाज पार्टी को 2 सीटें मिलीं, वहीं सत्तासीन कांग्रेस पार्टी ने 43 सीटें जीतकर सत्ता में तीसरी बार वापसी की। शीला दीक्षित के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ा गया था, इसलिए बतौर इनाम उन्हें तीसरी बार दिल्ली का सीएम बनाया गया। राजनीति पंडितों का कहना है कि कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव 2008 विकास के मुद्दे पर लड़ा। शीला दीक्षित ने दिल्ली में पुलों का जाल बिछा दिया था। ट्रैफिक जाम से तुलनात्मक रूप से राहत मिली थी। इसके अलावा, दिल्ली मेट्रो के विस्तार का श्रेय भी कांग्रेस की तत्कालीन सरकार को मिला और जनता ने इनाम के रूप में शीला दीक्षित को एक बार फिर पूर्ण बहुमत से दिल्ली की सत्ता सौंप दी। गौर करने वाली बात यह है कि कांग्रेस को 2008 के चुनाव में 40.3 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को 36.3 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे।

2013 में पलट गई बाजी
दिल्ली विधासभा चुनाव 2008 में कांग्रेस को भले ही जीत मिली, लेकिन अंदरूनी गुटबाजी ने पार्टी को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया था। कुछ सालों के शासन के दौरान ही महंगाई सिर उठाने लगी थी। भ्रष्टाचार का मुद्दा भी कांग्रेस के खिलाफ जा रहा था और भारतीय जनता पार्टी को लुभाने लगा था। भाजपा ने शीला सरकार पर कई तरह के घोटालों के आरोप लगाने शुरू कर दिए थे। वहीं, कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में सत्तासीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरने लगा था। टू-जी घोटाला और कोयला घोटाला समेत कई मुद्दे थे, जिस पर विपक्ष केंद्र सरकार को घेरने लगा था। इस बीच कॉमनवेल्थ खेल घोटाला भी सामने आ गया। इसमें दिल्ली सरकार पूरी तरह से घिर गई। कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद बाद मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट आने लगी। इस बीच चुनावी वर्ष से ठीक पहले 2012 में अन्ना आंदोलन का असर शुरू हो गया। अन्ना आंदोलन में सक्रिय हुए अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई और दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 में कूद गए। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में पहला चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी ने बहुत ही अच्छा प्रदर्शन किया। 2013 में AAP को 30 प्रतिशत वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 24.7 प्रतिशत वोट। 70 सीटों में से AAP को 28 सीटें हासिल हुईं, जबकि भाजपा को 31 सीटें मिलीं। वहीं, लगातार 15 साल तक दिल्ली पर राज करने वाली कांग्रेस पार्टी ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और सिर्फ 8 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी। इसके बाद अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस से गठबंधन करके सरकार बनाई, लेकिन वह केवल 49 दिन ही सीएम रहे। इसके बाद दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। दिल्ली में राष्ट्रपति शासन 14 फरवरी, 2014 से लेकर 11 फरवरी, 2015 तक लगा. इसके बाद चुनाव हुए और दिल्ली में जनता का शासन शुरू हो गया।

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में हो गया खेल
आम आदमी पार्टी 2013 के चुनाव में 28 सीटें जीतकर आत्मविश्वास हासिल कर चुकी थी। इसके बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में AAP ने इतिहास रच दिया। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में AAP ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए 70 में से 67 सीटों पर जीत हासिल की। इस चुनाव में कांग्रेस शून्य पर सिमट गई तो भाजपा को बमुश्किल 3 सीटें हासिल हुईं। जहां 2013 के चुनाव में AAP को 30 प्रतिशत वोट मिले थे तो वहीं 2015 में उसका मत प्रतिशत 54 हो गया। कांग्रेस को सिर्फ 9.7 प्रतिशत मत मिले। इस जीत के बाद अरविंद केजरीवाल दिल्ली के सीएम बने।

2020 में भी कायम रहा AAP का जलवा
दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 भारतीय जनता पार्टी ने पूरी मजबूती से चुनाव लड़ा और AAP को टक्कर देने की कोशिश की, लेकिन अरविंद केजरीवाल की राजनीति के आगे सारे विरोधी चित हो गए। AAP ने 2015 का प्रदर्शन करीब-करीब दोहराते हुए 70 में से 62 सीटों पर विजय पाई। भाजपा को 8 सीटों पर संतोष करना पड़ा, जबकि कांग्रेस लगातार शून्य पर सिमटी। इस चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत 6.21 प्रतिशत बढ़ा, जबकि AAP के वोटों में मामूली गिरावट दर्ज की गई। आम आदमी पार्टी का मत प्रतिशत 0.73 प्रतिशत गिरा, जबकि कांग्रेस कांग्रेस का वोट प्रतिशत 4.26 प्रतिशत रहा। कांग्रेस के वोट प्रतिशत में 2013 और 2015 के बाद 2020 में भी वोट प्रतिशत में गिरावट दर्ज की गई। 2020 के चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 5.44 प्रतिशत और गिर गया। कांग्रेस को 2015 की तरह ही 2020 के विधानसभा चुनाव में शून्य सीटें मिलीं।

अधिक नहीं गिरा भाजपा का वोट बैंक
भाजपा की बात करें तो वोट प्रतिशत को थोड़े उतार-चढ़ाव के साथ करीब-करीब हर चुनाव में स्थिर रहा, लेकिन सीटें घटती-बढ़ती रहीं। 1993 चुनाव में भाजपा को 42.8 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि वह 49 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी। इसके बाद 1998 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 15 सीटें मिलीं, लेकिन वोट प्रतिशत 34 प्रतिशत रहा यानी 8 प्रतिशत की गिरावट हुई। इसके बाद 2003 के चुनाव में भाजपा को वोट मिले 35.2 प्रतिशत, लेकिन सीटें मिली सिर्फ 20. इसके बाद 2008 के चुनाव में भाजपा के वोट प्रतिशत में मामूली बढ़ोतरी हुई। इस चुनाव में भाजपा ने 36.3 प्रतिशत वोटों के साथ 23 सीटें हासिल की थीं। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 में भाजपा को 33.3 प्रतिशत वोट मिले और सीटें मिली 31। 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का सबसे खराब प्रदर्शन रहा। वोट प्रतिशत तो 32.3 प्रतिशत मिले, लेकिन सीटें मिलीं सिर्फ 3। इसके बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपना प्रदर्शन सुधारते हुए 8 सीटें जीतीं और वोट प्रतिशत रहा 38.51 प्रतिशत। वहीं, कांग्रेस का बुरा हाल रहा और वह 4.26 प्रतिशत वोट लेकर एक भी सीट नहीं जीत सकी।

लगातार बढ़ता रहा AAP का वोट प्रतिशत
आम आदमी पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस के वोट बैंक में चुनाव दर चुनाव सेंधमारी की। 2013 में पहली बार चुनावी मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी को 29.49 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि भाजपा 33.7 प्रतिशत जबकि कांग्रेस को 24.55 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए थे। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में भाजपा को 32.19 प्रतिशत वोट तो कांग्रेस को सिर्फ 9.65 प्रतिशत वोट मिले, वहीं AAP को 54.34 प्रतिशत वोट हासिल हुए और भारी जीत के साथ सरकार बनाई। 2020 में हुए दिल्ली चुनाव की बात करें तो AAP को 53.57 प्रतिशत वोट मिले और भाजपा 38.51 प्रतिशत मत हासिल हुए। वहीं, कांग्रेस को के खाते में 4.26 प्रतिशत वोट ही आए।