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25 जून 1975: एक ऐसी अंधेरी रात जिसकी सुबह होने की कोई तिथि नहीं थी…
25 जून 1975: एक ऐसी अंधेरी रात जिसकी सुबह होने की कोई तिथि नहीं थी…
Authored By: सतीश झा
Published On: Tuesday, June 24, 2025
Last Updated On: Wednesday, June 25, 2025
25 जून 1975 की रात देश के इतिहास में ऐसा मोड़ लेकर आई, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. किसी को अंदेशा नहीं था कि यह दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा काला अध्याय बन जाएगा जिसे आने वाली पीढ़िया न सिर्फ याद रखेंगी, बल्कि उससे सबक भी लेंगी. इस रात न केवल संविधान को दरकिनार कर दिया गया, बल्कि देश के आम नागरिकों से उनके मौलिक अधिकार, स्वतंत्रता और न्याय भी छीन लिए गए.
Authored By: सतीश झा
Last Updated On: Wednesday, June 25, 2025
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 में आपातकाल (Emergency) की व्यवस्था है, लेकिन इसका प्रयोग केवल तब होना था, जब देश को किसी गंभीर खतरे का सामना करना पड़े. वर्ष 1975 में देश पर ऐसा कोई राष्ट्रीय संकट नहीं था. संकट था तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के पद और राजनीतिक प्रतिष्ठा पर. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन्हें चुनावी भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया और उनका लोकसभा चुनाव रद्द कर दिया. इसके बाद जो घटनाएं घटीं, उन्होंने लोकतंत्र की नींव को झकझोर कर रख दिया.
मौलिक अधिकारों पर पहरा
राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद (Fakhruddin Ali Ahmed) की मंजूरी के बाद आपातकाल लागू कर दिया गया. इसके साथ ही देश की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था एक व्यक्ति के अधीन हो गई. नागरिकों के अधिकार निलंबित कर दिए गए, प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई और सैकड़ों नेताओं और कार्यकर्ताओं को बिना मुकदमे जेल में डाल दिया गया. अदालतों की भूमिका सीमित कर दी गई. वकील, दलील, अपील जैसी कानूनी प्रक्रियाएं निष्क्रिय हो गईं.
सरकार के खिलाफ बोलना देशद्रोह माना जाने लगा. पुलिस को यह अधिकार मिल गया कि वह किसी को भी, कहीं से भी, बिना कारण गिरफ्तार कर सकती थी. प्रशासन सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के इशारों पर काम कर रहा था.
महंगाई और जनता का आक्रोश
1971 के युद्ध के बाद देश में महंगाई चरम पर पहुँच गई थी. शासन-प्रशासन की विफलता, भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट से जन आक्रोश पैदा हुआ. इसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देशव्यापी आंदोलन खड़ा हुआ. लोग लोकतंत्र की रक्षा के लिए सड़कों पर उतर आए.
अदालत का फैसला और सत्ता की बेचैनी
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द कर दिया और उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहरा दिया. पहले से ही जनता के आक्रोश का सामना कर रही सरकार और अधिक दबाव में आ गई. कांग्रेस ने इंदिरा गांधी के समर्थन में भावनात्मक माहौल बनाने की कोशिश की. 20 जून को आयोजित एक रैली में उनके पक्ष में नारे गूंजे — “इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय…”
जयप्रकाश नारायण का हुंकार
25 जून की शाम दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने विशाल जनसभा को संबोधित किया. उन्होंने इंदिरा गांधी से इस्तीफा माँगा और देश की जनता व सेना से लोकतंत्र की रक्षा की अपील की. उसी रात सरकार ने कार्रवाई शुरू कर दी — विपक्षी नेताओं की धरपकड़ शुरू हो गई और देश एक आपातकालीन शासन की गिरफ्त में आ गया.
लोकतंत्र का गला घोंटा गया
आपातकाल के तहत जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, राज नारायण, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदरलाल पटवा, कैलाश नारायण सारंग जैसे अनेक नेताओं को बंदी बना लिया गया. प्रेस की स्वतंत्रता छीन ली गई, पत्रकार गिरफ्तार किए गए और लोकतंत्र की हर आवाज को कुचल दिया गया.
राहत की शुरुआत
लगभग 21 महीनों तक यह अंधेरा कायम रहा. फिर 20 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल समाप्त करने की घोषणा की. अंततः 21 मार्च 1977 को भारत ने इस आपातकाल से पूरी तरह मुक्ति पाई. परंतु इस दौरान लोकतंत्र को जो चोटें पहुंचीं, वे आज भी देश की स्मृति में दर्ज हैं.
25 जून 1975 सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि उस दौर की याद दिलाती है जब लोकतंत्र को ताकत के बल पर कुचलने की कोशिश की गई थी. आज जब हम इस दिन की 50वीं बरसी पर पीछे मुड़कर देखते हैं, तो हम इतिहास से सबक लें. लोकतंत्र की रक्षा केवल कानूनों से नहीं, बल्कि जनता की जागरूकता, स्वतंत्र मीडिया और स्वतंत्र न्यायपालिका से होती है — और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत भी है.