Special Coverage
बिहार के लिए आपातकाल और जेपी की संपूर्ण क्रांति के मायने
बिहार के लिए आपातकाल और जेपी की संपूर्ण क्रांति के मायने
Authored By: सतीश झा
Published On: Tuesday, June 24, 2025
Last Updated On: Tuesday, June 24, 2025
25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल (Emergency 1975) और उससे ठीक पहले बिहार की धरती से उठी जयप्रकाश नारायण (JP) की संपूर्ण क्रांति की पुकार ने भारतीय लोकतंत्र के इतिहास को एक नया मोड़ दिया. बिहार न केवल इस ऐतिहासिक आंदोलन की जन्मभूमि बना, बल्कि उसने यह भी साबित किया कि जनशक्ति किसी भी सत्ता के दंभ को चुनौती दे सकती है. आज भी JP आंदोलन और आपातकाल की घटनाएं बिहार की राजनीतिक चेतना का आधार बनी हुई हैं. वर्तमान में प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर जो भी नेता चमक रहे हैं, वे JP आंदोलन में तपकर ही निकले हुए हैं.
Authored By: सतीश झा
Last Updated On: Tuesday, June 24, 2025
1974 में बिहार के छात्रों और युवाओं के नेतृत्व में शुरू हुआ आंदोलन भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और व्यवस्था की विफलता के खिलाफ था. छात्र नेताओं की माँगों को जब नजरअंदाज किया गया, तब आंदोलन का नेतृत्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण (JP) ने संभाला और इसे संपूर्ण क्रांति का नाम दिया. यह क्रांति केवल शासन परिवर्तन नहीं, बल्कि व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की मांग थी.
JP ने युवाओं को यह संदेश दिया कि लोकतंत्र की रक्षा केवल चुनावों से नहीं, बल्कि जनभागीदारी और नैतिक नेतृत्व से होती है. बिहार के गांव-गांव, गली-गली में जनता संगठित हुई और सत्ता की नीतियों को खुली चुनौती दी.
आपातकाल: लोकतंत्र पर सबसे बड़ा प्रहार
जेपी आंदोलन के दबाव और इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किए जाने के बाद, 25 जून 1975 को देशभर में आपातकाल लागू कर दिया गया. इसे भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे अंधकारमय अध्याय कहा जाता है.
आपातकाल में हजारों नेताओं, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया. मीडिया पर सेंसरशिप, नागरिक अधिकारों का निलंबन और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर अंकुश जैसी घटनाएं लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर हमला थीं. बिहार इस पूरे आंदोलन और दमन का केंद्र बिंदु बना रहा. जेपी, लोहिया, कुशाभाऊ ठाकरे, अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, सुशील मोदी, लालू यादव, नीतीश कुमार जैसे नेता इसी आंदोलन की उपज थे, जिन्होंने आगे चलकर भारत की राजनीति को दिशा दी.
आपातकाल के खिलाफ बिहार में बनी थी ‘जनता सरकार’
जब 25 जून 1975 को देश पर आपातकाल थोपा गया, तब सबसे पहली सशक्त आवाज बिहार की धरती से उठी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में उठे संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने तानाशाही के खिलाफ जन चेतना की वह लहर खड़ी की, जिसने भारतीय राजनीति की धारा ही बदल दी. लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि आपातकाल की पृष्ठभूमि में बिहार में सरकार के समानांतर एक ‘जनता सरकार’ भी अस्तित्व में आई थी. सबसे पहली ऐसी सरकार सिवान जिले के पचरूखी प्रखंड में स्थापित की गई थी. इसके बाद नवादा, बिहारशरीफ और जमुई में भी समानांतर रूप से जनता सरकारों का गठन हुआ.
क्या थी ‘जनता सरकार’?
आपातकाल के दौरान जब लोकतंत्र के सारे दरवाज़े बंद कर दिए गए, तब जेपी के नेतृत्व में युवाओं, छात्रों और समाजसेवियों ने मिलकर गांव-गांव में लोगों को संगठित करना शुरू किया. पुलिस-प्रशासन के अत्याचारों से लड़ने, भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने और जनहित से जुड़े निर्णय लेने के लिए इन क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक संरचनाओं का निर्माण किया गया — इन्हीं का नाम था ‘जनता सरकार’.
जेपी की सोच: दलविहीन लोकतंत्र
जेपी का मानना था कि भारत में राजनीतिक दलों की जकड़न ने लोकतंत्र को खोखला कर दिया है. उन्होंने कहा था कि “भारत में दलतंत्र ने लोकतंत्र की जगह ले ली है.” वे राजनीतिक दलों से मुक्त, वर्गविहीन, नैतिक और उत्तरदायी समाज की स्थापना करना चाहते थे.
जेपी को विश्वास था कि केवल सत्ता परिवर्तन से नहीं, बल्कि व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन से ही देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित किया जा सकता है. इसी उद्देश्य से उन्होंने ‘संपूर्ण क्रांति’ की परिकल्पना की — जो केवल राजनीतिक क्रांति नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और नैतिक सुधारों की क्रांति थी.
वर्धा की अपील और युवाओं का आह्वान
जेपी ने 9 दिसंबर 1973 को वर्धा में देश के युवाओं से एक विशेष अपील की थी, जिसमें उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक संगठित आंदोलन खड़ा करने का आह्वान किया. उनका यह संदेश बिहार में सबसे पहले गूंजा, जहां छात्र संगठनों, युवाओं और बुद्धिजीवियों ने मिलकर एक सशक्त जनांदोलन की नींव रखी.
जेपी पर चला था लाठीचार्ज, लोकतांत्रिक आंदोलन के प्रतीक बने जख्म
साल 1974 में आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिल रहा था, जिससे सरकार हिल गई थी. छात्रों की यह समिति जनसंघर्ष समिति के अनुभवी बुजुर्गों के साथ मिलकर शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन को आगे बढ़ा रही थी. जेपी के नेतृत्व में 2 से 4 नवंबर 1974 को पटना में बिहार विधानसभा का घेराव किया गया. इस घेराव में हज़ारों की संख्या में छात्र-युवा, बुद्धिजीवी और आम लोग शामिल हुए. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर सरकार ने लाठीचार्ज का आदेश दिया.
इस लाठीचार्ज में खुद जेपी भी गंभीर रूप से घायल हो गए. उन पर लाठियां बरसाई गईं, लेकिन उनकी आवाज़ और संकल्प नहीं टूटा. यह हमला न केवल उनके शरीर पर, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर था — और उसी दिन से जेपी लोकतंत्र की रक्षा के प्रतीक बन गए.
घायल शरीर, मजबूत इरादा
लाठीचार्ज में घायल होने के बावजूद जेपी ने आंदोलन जारी रखा और देश भर में लोकतंत्र के लिए एक नई चेतना जगाई. उन्होंने युवाओं से कहा – “यह केवल सरकार के खिलाफ आंदोलन नहीं है, यह व्यवस्था को बदलने का आंदोलन है.”
बिहार की चेतना का स्थायी प्रभाव
जेपी आंदोलन और आपातकाल की स्मृति आज भी बिहार की राजनीतिक और सामाजिक चेतना में जीवित है. यह आंदोलन:
- राजनीतिक जागरूकता की नई लहर लेकर आया
- जन आंदोलनों की ताकत को स्थापित किया
- युवाओं को लोकतंत्र के प्रति उत्तरदायित्व सिखाया
- बिहार को राजनीतिक विचारधारा और नेतृत्व की प्रयोगशाला बना दिया
आज के परिप्रेक्ष्य में इसका महत्व
जब लोकतंत्र के मूल्य चुनौती में हों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगे, तब जेपी की संपूर्ण क्रांति की भावना और आपातकाल के अनुभव हमें सतर्क और जागरूक रहने की सीख देते हैं. बिहार के लिए यह महज इतिहास नहीं, बल्कि संवेदनशील लोकतंत्र का जिंदा दस्तावेज है. जेपी आंदोलन और आपातकाल बिहार के लिए न केवल इतिहास हैं, बल्कि आज भी चेतना, संघर्ष और लोकतंत्र की रक्षा का प्रेरणास्रोत हैं. यह वह विरासत है जो हर पीढ़ी को यह याद दिलाती है कि लोकतंत्र सिर्फ एक प्रणाली नहीं, बल्कि जनता की सतर्कता, भागीदारी और बलिदान से जीवित रहता है.