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Pahalgam Terror Attack: नहीं भूलते वे खौफनाक दिन…
Pahalgam Terror Attack: नहीं भूलते वे खौफनाक दिन…
Authored By: अंशु सिंह
Published On: Thursday, May 22, 2025
Last Updated On: Thursday, May 22, 2025
Pahalgam Terror Attack: 22 अप्रैल, 2025...पहलगाम की बैसरन घाटी...दोपहर का समय... खूबसूरत और खुशनुमा घाटी में देशभर से आए पर्यटक जमकर मस्ती कर रहे थे... अचानक सबकुछ बदल जाता है... ऊपर पहाड़ियों के जंगल से आए आतंकी पर्यटक पुरुषों को उनका धर्म पूछ पूछ कर गोली मारने लगते हैं... हर तरफ चीख पुकार मच जाती है... शादी करके हनीमून मनाने आए युवकों को उनकी नवविवाहिताओं के सामने ही मार दिया जाता है... इस खौफनाक आतंकी हमले में 26 नागरिकों की जान चली गई...इसके बाद आक्रोशित भारत ने आतंकियों और उनके सरपरस्तों के खिलाफ 'ऑपरेशन सिंदूर' के तहत पाकिस्तान में घुसकर जो कार्रवाई की, उसे दुनिया ने देखा. पहलगाम में आतंकी हमले के ठीक पहले वहां घूमने गईं हमारी विशेष संवाददाता अंशु सिंह साझा कर रही हैं अपनी यादें...
Authored By: अंशु सिंह
Last Updated On: Thursday, May 22, 2025
आतंकी हमले के एक महीना पूरा होने पर…
हमारी कश्मीर यात्रा का एक अहम पड़ाव था पहलगाम. वहां एक रात ठहर कर वापस जम्मू के लिए निकलना था. सिर्फ यह तय नहीं था कि जम्मू-श्रीनगर हाइवे बंद होने के कारण किस रास्ते से लौटना है. हम 21 लोगों का समूह 21 अप्रैल की सुबह 6.30 बजे के आसपास श्रीनगर से पहलगाम के लिए बस से निकला था. ड्राइवर भइया के अनुसार, श्रीनगर से पहलगाम का करीब 92 किलोमीटर का सफर ढाई-तीन घंटे का होने वाला था. जैसे-जैसे मंजिल करीब आ रही थी, हम किसी एक ऐसे स्थान की तलाश करने लगे थे, जहां कुदरत के बीच नाश्ता कर सकें. लिड्डर नदी के संग-संग पहलगाम में प्रवेश करते ही हमें नदी किनारे नाश्ते के लिए एक उपयुक्त स्थान मिल गया. सभी फटाफट बस से उतरे और बड़ी-बड़ी चट्टानों पर आसन जमा लिया. वैसे, तो पानी का कोई रंग नहीं होता, लेकिन समीप बह रही लिड्डर नदी का स्वच्छ पारदर्शी जल, नदी के उस पार हरे-भरे जंगल और उसके पीछे के बर्फ से ढके सफेद पहाड़ का दृश्य इतना मनमोहक था कि क्या कहूं. हाथ में नाश्ते की प्लेट आ चुकी थी. भूख भी तेज लगी थी. लेकिन वहां के कुदरती नजारों से नजरें हट ही नहीं रही थीं.
लगभग एक-सवा घंटे के अंतराल के बाद हमारी बस पहलगाम बाजार के निकट पार्किंग में पहुंची. वहां से आगे का सफर स्थानीय टैक्सी में तय करना था. पांच गाड़ियों में सवार होकर हम सभी पहलगाम को देखने निकले। हमें तीन प्वाइंट्स कवर करने थे-चंदनबाड़ी, आरू वैली एवं बेताब वैली। हर स्थान को देखने के लिए एक-एक घंटे का समय निर्धारित था. चूंकि देर होने पर अतिरिक्त किराया देना था, इसलिए बिना समय गंवाए हम निकल पड़े. घुमावदार रास्तों से गुजरते हुए प्रकृति का रंग और निखरता जा रहा था. संगमरमर सरीखे पहाड़ों एवं कतार में लगे घने वृक्षों के संग हम कब अपने पहले गंतव्य चंदनबाड़ी तक पहुंच गए, पता ही नहीं चला. वहां कुछ समय बिताने के पश्चात हमारा कारवां आरु वैली की ओर बढ़ा. यहां कई हिंदी फिल्मों की शूटिंग हुई है, जिनमें कर्मा, बजरंगी भाई जान आदि शामिल हैं. आरू घाटी में वह घर आज भी मौजूद है, जहां दिलीप कुमार की फिल्म कर्मा की शूटिंग हुई थी. घाटी के नजारों को करीब से देखने के लिए घोड़े या खच्चर की सुविधा थी. स्थानीय पोनी राइडर्स हमें भी आगे चलने की मिन्नतें कर रहे थे, लेकिन सबने बेताब वैली जाने का फैसला किया, जो तराई में स्थित था.
आरू वैली की तरह इस घाटी के भी एक हिस्से को मनोरंजक पार्क में तब्दील कर दिया गया था. वयस्कों के लिए 100 रुपये एवं बच्चों के लिए 30 रुपये का टिकट था. टिकट लेकर हम अंदर पहुंचे, तो वहां सबसे पहले लिड्डर नदी ने हमारा स्वागत किया. फिर मिले हरे-भरे घास के खूबसूरत मैदान और उस मैदान को चारों ओर से घेरे हुए जंगल एवं बर्फ के सफेद पहाड़. आपको बता दें कि बेताब वैली का असल नाम हगन घाटी अथवा वादी-ए-हगन है, लेकिन सनी देओल की पहली फिल्म ‘बेताब’ की शूटिंग के बाद से यह बेताब वैली के नाम से लोकप्रिय हो गया. पहलगाम की तरह यहां के घास के खूबसूरत मैदान में भी पर्यटकों की भारी भीड़ थी. छोटे-छोटे बच्चों के साथ स्थानीय लोग भी घूम रहे थे. छोटी-छोटी अस्थायी दुकानें सजी हुई थीं. घूम-घूम कर कश्मीरी शॉल, कुर्ते बेचने वाले सैलानियों से मोल-भाव कर रहे थे. कबूतर, खरगोश, भेड़ लिए स्थानीय लोग भी थे, जो 50-50 रुपये में आपके ही मोबाइल फोन से आपकी उनके साथ फोटो निकालने के लिए मौजूद थे. इसके अलावा, जिप लाइन एवं रस्सी साइक्लिंग जैसे रोमांचक खेलों के विकल्प थे. हमारे ग्रुप के कुछ सदस्यों ने भी इसका आनंद लिया. जो घाटी के अंदर और आगे जाना चाहते थे, उनके लिए फिर से खच्चर एवं घोड़े का ही सहारा था, लेकिन यहां भी हम उनकी सेवा नहीं ले सके.
मौसम का रंग बदलने लगा था. हल्की-हल्की बारिश शुरू हो गई. पहलगाम बाजार में जाम लग चुका था. ड्राइवर भइया पहाड़ों के बीच किसी शॉर्टकट रास्ते से हमें होटल ले आए. अगली सुबह यानी 22 अप्रैल को 12.30 बजे तक चेकआउट करना था, लेकिन गाड़ी से लेकर होटल वालों ने एक दिन और ठहरने की गुजारिश की, ताकि हम लोग पहलगाम के कुछ और अनछुए स्थलों की सैर कर सकें. मिनी स्विट्जरलैंड ‘बैसरन घाटी’ देख सकें. हमारी टीम लीडर के समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया, लेकिन वहां कुछ बुनियादी चीजों की दिक्कत हो रही थी. बिजली की आपूर्ति नियमित नहीं थी. इनवर्टर से पावर मिल रही थी. आसपास एक-दो छोटी दुकानें ही थीं, जहां राशन-सब्जियों की नियमित आपूर्ति नहीं हो पा रही थी. यह सब देखते हुए पूर्व निर्धारित योजना के तहत वापस श्रीनगर लौटना ही उचित समझा गया. 22 अप्रैल की उस सुबह होटल के गेट पर कश्मीरी विक्रेताओं की भीड़ इकट्ठा हो गई थी. खूब मोल-भाव हुए. सबने ढेर सारी खरीदारी की. किसी ने गर्म जैकेट लिए, किसी ने शॉल, किसी ने कुर्ते. क्योंकि हर कोई कश्मीर से कोई न कोई सौगात अपने दोस्तों, रिश्तेदारों व परिजनों के लिए ले जाना चाहता था.
हम तीन लोगों को कुछ आवश्यक खरीदारी के लिए बाजार जाना था. बताया गया कि समीप ही एक रास्ता नीचे की ओर मुख्य सड़क पर जाता है, जहां से लोकल टैक्सियां चलती हैं. वे बाजार तक छोड़ देंगी, जो एक किलोमीटर दूर था. हम तीन लोग पैदल ही निकल पड़े. रास्ते में एक स्थानीय महिला से मदद ली कि क्या हम सही रास्ते पर जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि बिल्कुल सही हैं. फिर कुछ स्थानीय नौजवान भाई मिले. उन्होंने पूछा कि आप लोग किधर जा रही हैं. जब हमने बताया, तो एक गाड़ी वाला नवयुवक हमें बाजार तक छोड़ने के लिए स्वत: राजी हो गया. हमने पूछे कि कितना किराया लेंगे, तो सबने कहा कि ये तो ‘लाला’ है. आप सभी को आराम से छोड़ देगा. हम तीनों गाड़ी में बैठ गए. बातचीत होने लगी. पहलगाम न सिर्फ अपनी नैसर्गिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि यह अमरनाथ यात्रा का बेस कैंप भी है. गाड़ी वाले नौजवान ने बताया कि अमरनाथ यात्रा के दौरान वे लोग श्रद्धालुओं के लिए क्या-क्या व्यवस्था करते हैं. होटलों में भोजन से लेकर रहने के कितने इंतजाम किए जाते हैं. लंगर लगाए जाते हैं. ये तो उनका पीक पर्यटन सीजन होता है. इसके बाद अमरनाथ यात्रा की तैयारी शुरू हो जाती है. उस युवक ने यह भी बताया कि वह अपने दोस्त को एलआईसी की किश्त देने मार्केट जा रहा था. उनका दोस्त ड्राई फ्रूट्स का कारोबारी भी है. पहलगाम मार्केट में उसकी एक छोटी सी दुकान है. वहां से सही कीमत पर ड्राई फ्रूट्स ले सकते हैं. हमने फौरन हामी भर दी. वह हमें दुकान पर ले गए. वहां के अलावा कुछ और छोटी-मोटी खरीदारी की. फिर उन्होंने वापसी के लिए भी हमारे लिए एक टैक्सी की व्यवस्था कर दी. हमें किराया देने से मना किया. बदले में एक स्थानीय दुकानदार से ऐसा करने को कहा. उन्होंने टैक्सी वाले को पैसे दिए, जिन्होंने हमें सुरक्षित होटल पहुंचा दिया.
होटल में वापसी की तैयारी शुरू हो चुकी थी. करीब 12.45 बजे हम सभी अपने बस से वहां से श्रीनगर के लिए रवाना हो गए. एक घंटे के बाद ही रास्ते में पहली खबर मिली कि ऊपर पहलगाम के पास ‘बैसरन घाटी’ में फायरिंग शुरू हो गई है. थोड़ी देर बाद जब इंटरनेट ऑन किया और खबर देखी, तो पूरा मामला सामने था. तब तक कुछ जानें जाने की सूचना आ गई थी. हम सब सकते में थे, क्योंकि निशाना निहत्थे पर्यटकों को बनाया गया था. सबने हिम्मत बंटोरी और मौन धारण कर ईश्वर को याद करने लगे. हम सब सिर्फ यही प्रार्थना कर रहे थे कि सब सही-सलामत रहें। कुछ दूर और आगे जाने पर सुरक्षाबलों की गाड़ियां दौड़ती हुई दिखाई देने लगीं. जल्द ही हम श्रीनगर में दाखिल हो गए.
22 अप्रैल को श्रीनगर में लोगों की सामान्य आवाजाही थी. ट्रैफिक सामान्य था. बाजारों-पार्कों में भीड़ लगी थी, लेकिन अब सीआरपीएफ के अलावा कमांडो दस्ते भी चारों ओर फैल चुके थे. इधर, हम सभी के फोन की घंटियां बजनी शुरू हो गई थीं. फोन पर परिजनों की आवाज में चिंता, हताशा, डर का अहसास होने लगा था. सब अपने-अपने घरवालों को ढांढस बंधाने में लग गए कि घबराएं नहीं, हम सब सुरक्षित हैं. मेरे फोन की घंटी भी लगातार बज रही थी. कारण ये भी था कि जम्मू-कश्मीर हाईवे के बंद होने के पश्चात जब सबने खबर लेनी शुरू की कि मैं कहीं फंसी तो नहीं हूं, तब बहुत से कॉल्स का जवाब देने के बजाय मैंने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट शेयर कर दिया था कि मैं पहलगाम में हूं और सुरक्षित हूं, लेकिन अगले दिन ही आतंकी वारदात घट गई और सबके सब्र का बांध टूट गया. होटल पहुंचते-पहुंचते तो आखिरी निर्णय लेने की घड़ी आ चुकी थी. अगली सुबह यानी 23 अप्रैल को श्रीनगर से जम्मू को जोड़ती पुरानी सड़क ‘मुगल रोड’ से जम्मू लौटने का निर्णय ले लिया गया. यह रास्ता कम जोखिम भरा नहीं था, क्योंकि सड़क सकरी है यहां. रास्ते के कुछ हिस्सों पर आतंकियों का खतरा बना रहता है. राहत की बात सिर्फ यह थी कि हमले के बाद से यहां की सुरक्षा बढ़ा दी गई थी. हालांकि, मैंने श्रीनगर से दिल्ली फ्लाइट से लौटने का निर्णय ले लिया था. जिस फ्लाइट का टिकट दो दिन पहले 12 हजार रुपये था, वह अब 22 हजार रुपये का हो चुका था.
23 तारीख को ग्रुप के 18 सदस्य बस से जम्मू रवाना हो गए. होटल में मेरे अलावा टीम के दो वरिष्ठ सदस्य थे, जिन्हें 24 अप्रैल की फ्लाइट लेनी थी. जो दो परिवार उस दिन होटल आने वाले थे, उनकी बुकिंग कैंसिल हो चुकी थी. आगे के महीनों की बुकिंग्स भी कैंसिल हो चुकी थी. होटल की देखरेख कर रहे दोनों सदस्य नेपाली मूल के थे और काफी परेशान थे कि अब कुछ समय फिर खाली ही बैठना पड़ेगा, लेकिन मैं अलग ही उधेड़बुन में थी कि श्रीनगर हवाई अड्डा कैसे पहुंचूंगी, क्योंकि उस दिन स्थानीय सिविल सोसायटी ने श्रीनगर बंद का एलान किया था. लोकल ट्रांसपोर्ट बंद थे. फोन कॉल्स आ-जा रहे थे. श्रीनगर के कुछ स्थानीय परिचित मेरे जाने की व्यवस्था कराने में जुटे थे. दिल्ली में भाई प्रयास कर रहा था. फिर उसके ही मित्र एवं उसके एक सीनियर कमांडेंट की मदद से मैं सुरक्षित एयरपोर्ट पहुंच सकी. होटल से एयरपोर्ट का पूरा रास्ता वीरान था. दुकानें सब बंद थीं. सड़क पर थे तो सिर्फ सुरक्षाकर्मी एवं उनकी बख्तरबंद गाड़ियां. ऐसा दृश्य पहले सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर या खबरों में देखा-सुना था. उस दिन खुली आंखों से देखा और उस वक्त को महसूस भी किया.
एयरपोर्ट में दाखिल होते समय छह-सात एंबुलेंस का एक काफिला भी पहुंचा. पता चला कि पहलगाम हमले के घायलों को बेहतर इलाज के लिए दिल्ली एयरलिफ्ट किया जा रहा है. दिल एकदम से बैठ गया. हवाई अड्डे के अंदर का नजारा भी कम हताशा भरा नहीं था. नीचे-ऊपर हर स्थान भरा था. सैलानी फर्श पर बैठे घर लौटने का इंतजार कर रहे थे. क्या वक्त आ गया था. अधिकतर लोग परिवार संग छुट्टियां मनाकर लौट रहे थे, लेकिन किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं थी. सभी लोग एक अजीब सी उदासी से भरे थे. मेरे करीब बैठे दिल्ली के साकेत से आए एक अंकल जी ने कहा, ‘दुख होता है कश्मीर की हालत देखकर. यह हमारे देश का एक नगीना है. एक बेहद खूबसूरत हिस्सा है, लेकिन उसे किसी की नजर लग गई है.’
पहलगाम में बिताए गए पलों को याद करने पर लगता है कि, क्या वहां जो देखा, जाना, महसूस किया, वह सब सामान्य था? क्या हमारा एक अनजाने नौजवान की गाड़ी में बैठकर बाजार तक जाना सही था? क्या अरू या बेताब घाटी में खच्चर से ऊपर न जाना या एक और दिन पहलगाम में न रुकने का निर्णय कोई दैवी इशारा था? हमें मलाल नहीं कि हम ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ नहीं देख सके. विश्वास बहुत बड़ी चीज है. साथ ही जरूरी है व्यावहारिक होकर, समयानुसार निर्णय लेना. हमारे समूह में 23 वर्ष से 77 वर्ष की आयु के सदस्य थे. सभी ने एक-दूसरे की भावनाओं का पूरा खयाल रखा. सभी सुरक्षित अपने-अपने स्थानों पर पहुंच गए. इसके लिए ईश्वर एवं सभी मददगारों का तहे दिल से धन्यवाद. जिन्होंने सही समय पर, सही मार्गदर्शन किया. चाहे वे श्रीनगर के स्थानीय लोग, व्यापारी, ऑटो-बस कर्मी, स्थानीय मीडिया के साथी हों या पुलिस-प्रशासन. बाकी सभी अपनों की दुआओं का असर रहा.