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निशांत की सियासी एंट्री पर चर्चा, नीतीश कुमार के सामने अब सबसे कठिन धर्म-संकट, पार्टी में खलबली
Authored By: Nishant Singh
Published On: Wednesday, December 10, 2025
Last Updated On: Wednesday, December 10, 2025
बिहार की सियासत में एक नया तूफान उठ चुका है. जेडीयू के भीतर अब चर्चा सिर्फ एक सवाल की क्या नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार राजनीति में कदम रखेंगे? संजय झा के बयान ने माहौल गरमा दिया है और नीतीश के सामने “करो या मरो” जैसी स्थिति बन गई है. पार्टी का भविष्य, सिद्धांतों का दबाव और परिवारवाद का संकट सब कुछ एक साथ उनके दरवाज़े पर खड़ा है.
Authored By: Nishant Singh
Last Updated On: Wednesday, December 10, 2025
Nishant Political Entry: बिहार की सियासत में इन दिनों सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार अब सच में राजनीति में उतरने जा रहे हैं? चुनावों के दौरान भी उनका नाम कई बार उठा, लेकिन अब जेडीयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा ने खुद सार्वजनिक तौर पर इच्छा जता दी है कि पार्टी चाहती है निशांत नेतृत्व में आएं. इस बयान ने पूरी राजनीतिक हवा बदल दी. चुनावी मौसम में दिए गए बयान अक्सर जुमला साबित होते हैं, लेकिन जब वही बात चुनाव बाद भी गूंजने लगे तो समझिए कि मसला केवल बयानबाज़ी का नहीं, बल्कि पार्टी के अंदर बड़ा मंथन चल रहा है.
संजय झा का “निशांत प्रेम” – संयोग या सोची-समझी रणनीति?
दिलचस्प बात यह है कि संजय झा ने यह बयान उसी वक्त दिया जब वे और निशांत एक ही फ्लाइट से पटना लौट रहे थे. इसे संयोग कहें या प्रयोग, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं में संदेश साफ गया जेडीयू अब अगली पीढ़ी के नेतृत्व की तलाश में गंभीर है. झा ने साफ शब्दों में कहा कि कार्यकर्ता, समर्थक और पार्टी का बड़ा वर्ग चाहता है कि निशांत सक्रिय भूमिका निभाएं. हालांकि निशांत ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन नेताओं के हाव-भाव से लग रहा है कि पार्टी अगली चाल उसी हिसाब से चलने को तैयार है. सवाल ये है कि क्या खुद नीतीश ने इस पर मंजूरी दे दी है?
क्या नीतीश कुमार परिवारवाद का ठप्पा मंजूर करेंगे?
नीतीश कुमार का राजनीतिक सफर साफ-सुथरी छवि और परिवारवाद से दूरी के लिए जाना जाता है. लालू प्रसाद यादव पर वे वर्षों तक परिवारवाद का हथौड़ा चलाते रहे ऐसे में अपने ही बेटे को लॉन्च करना उनके राजनीतिक सिद्धांतों की परीक्षा जैसा होगा. नीतीश हमेशा भ्रष्टाचार और वंशवाद से दूरी रखते आए हैं, और यही उनकी पहचान रही है. लेकिन राजनीतिक विरासत भी एक हकीकत है. वे अब अपने करियर के आखिरी पड़ाव पर हैं, और पार्टी के भविष्य की फिक्र भी उन्हें उतनी ही है जितना सिद्धांतों की. इसलिए निशांत का मुद्दा उनके लिए दिल बनाम दिमाग वाली सबसे कठिन परीक्षा है.
सहयोगी बीजेपी का क्या होगा – समर्थन या असहजता?
बीजेपी सार्वजनिक रूप से परिवारवाद का विरोध करती है, लेकिन रिकॉर्ड देखें तो शिवसेना के ठाकरे परिवार, अकाली दल के बादल परिवार, हरियाणा के चौटाला परिवार और बिहार के पासवान परिवार कई ऐसे सहयोगी हैं जिनकी राजनीति पूरी तरह परिवारवादी है. ऐसे में नीतीश अगर अपने बेटे को आगे लाते हैं तो बीजेपी शायद खुलकर विरोध नहीं करेगी. लेकिन अंदरखाने यह समीकरण जरूर बदल सकता है, क्योंकि बिहार में जेडीयू की ताकत पहले ही कम हो चुकी है और बीजेपी अब कहीं अधिक मजबूत स्थिति में है.
पार्टी के भीतर क्या माहौल – फायदा ज्यादा या नुकसान?
जेडीयू के कई नेता मानते हैं कि निशांत का चेहरा पार्टी को एकजुट रखने में मदद कर सकता है. बिहार की राजनीति में देखा गया है कि बाहरी नेतृत्व को स्वीकारने में कार्यकर्ता अक्सर हिचकते हैं, लेकिन परिवार से जुड़े चेहरे को वे सहजता से अपना लेते हैं. कांग्रेस के शशि थरूर भी अपने लेख में लिख चुके हैं कि वंशवाद चाहे कैसा भी हो पार्टी का बेस इसे स्वीकारने में कम समय लगाता है. इसलिए निशांत को आगे लाने से जेडीयू के टूटने की संभावना कम और एकजुट होने की ज्यादा है बशर्ते एंट्री सही समय पर कराई जाए.
जेडीयू का भविष्य – नेता के बिना पार्टी खड़ी रह पाएगी?
जेडीयू की सबसे बड़ी समस्या यही है कि नीतीश कुमार के अलावा कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो पूरे बिहार में स्वीकार्य हो या जिस पर राज्यभर का भरोसा हो. प्रशांत किशोर का उदाहरण सामने है जिन्हें पहले पार्टी का भविष्य बताया गया और कुछ ही समय में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. जेडीयू अभी उसी मोड़ पर खड़ी है जिस पर तमिलनाडु की AIADMK जयललिता के जाने के बाद पहुंची थी. जब तक पार्टी का भविष्य किसी ठोस नेतृत्व के हाथ में न सौंपा जाए, वह सिर्फ गठबंधनों पर निर्भर रह जाएगी.
अब फैसला निशांत और नीतीश दोनों के सामने
नीतीश कुमार के लिए यह सीधा-सीधा करो या मरो वाला फैसला है. एक तरफ राजनीतिक सिद्धांत और परिवारवाद से दूरी, दूसरी तरफ पार्टी का भविष्य और सत्ता की निरंतरता. निशांत की चुप्पी भी सवालों को और गहरा करती है. क्या वे जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं? क्या नीतीश अपने राजनीतिक सिद्धांतों में बदलाव करते हुए अगली पीढ़ी को सत्ता सौंपेंगे? यही वह मुद्दा है जो आने वाले महीनों में बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा मोड़ साबित हो सकता है.
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