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मूर्तियों की सियासत तेज, मायावती के बाद सपा और अब BJP एक ही पिच पर, 2027 की सियासी पिच पर कौन मारेगा छक्का?
Authored By: Nishant Singh
Published On: Thursday, December 11, 2025
Last Updated On: Thursday, December 11, 2025
उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नई हलचल है. मायावती के स्मारक मॉडल से शुरू हुआ खेल अब सपा ने अपनाया, और BJP भी उसी पिच पर उतर चुकी है. मूर्तियों, पार्कों और प्रेरणा स्थलों की इस होड़ में हर पार्टी अपनी विरासत गढ़ने में लगी है. जानिए कि क्या ये सियासी प्रतीक 2027 के चुनाव में कोई बड़ा खेल पलट देंगे?
Authored By: Nishant Singh
Last Updated On: Thursday, December 11, 2025
Mayawati: उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुद्दे, चेहरे और दल बदलते रहते हैं, लेकिन एक चीज़ कभी नहीं बदलती पहचान की राजनीति. बीते दो दशक में यूपी ने देखा है कि जब भी सरकारें आती और जाती हैं, उनके साथ बदलती हैं मूर्तियां, पार्क और स्मारकों की कहानियां. कभी ये सामाजिक न्याय का प्रतीक बनते हैं, कभी समाजवाद का संदेश, और अब राष्ट्रवाद की प्रेरणा. सवाल यह है कि यह दौड़ महज पत्थर और पार्क की है या इसके पीछे 2027 के लिए गहरी रणनीति छिपी है?
मायावती: पहचान की राजनीति की जननी
जब मायावती सत्ता में थीं, यूपी ने पहली बार देखा कि स्मारक भी सियासत की धुरी बन सकते हैं. उनका फोकस था दलित icons को वह सम्मान देना, जो इतिहास में उन्हें नहीं मिला. कांशीराम स्मारक, हाथी पार्क, और भव्य मूर्तियों के जरिए बसपा ने दलित समाज को एक मजबूत पहचान दी. बसपा नेताओं का साफ दावा है कि “हमने उन महापुरुषों को जगह दी, जिन्हें इतिहास में जगह नहीं मिली.” यह मायावती का सबसे बड़ा राजनीतिक संदेश था.
सपा का नया रास्ता: समाजवाद को ‘पार्कों’ में उतारना
मायावती के बाद जब अखिलेश यादव की सपा सरकार आई, उन्होंने भी उसी राह को अपनी भाषा में अपनाया. फर्क इतना था कि सपा ने दलित पहचान की जगह विकास + समाजवाद का मैसेज देना चुना. यही वजह है कि लखनऊ में जनेश्वर मिश्रा पार्क और लोहिया पार्क जैसे भव्य प्रोजेक्ट सामने आए. सपा का तर्क भी साफ है कि “हमने सिर्फ मूर्तियां नहीं लगाईं, बल्कि अस्पताल और पब्लिक सर्विसेस देकर लाभ भी दिया.” यानी पहचान के साथ सुविधा जोड़कर अपनी राजनीतिक छवि को मज़बूत करना.
अब BJP की एंट्री: राष्ट्रवाद वाली पिच पर नई रणनीति
अब बारी बीजेपी की है, जिसने इसे और बड़े पैमाने पर खेलना शुरू किया है. बीजेपी सरकार ने अटल बिहारी वाजपेयी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, और दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर विशाल स्मारक, विश्वविद्यालय और प्रेरणा स्थल शुरू किए हैं. बीजेपी का दावा हैकि “ये सिर्फ मूर्तियां नहीं, नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्थल हैं.” यानी पार्टी अपनी वैचारिक विरासत को जड़ से स्थापित कर रही है, ताकि 2027 तक उसका संदेश मतदाताओं तक गहराई से पहुंचे.
राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया: आरोप बनाम जवाब
सपा का कहना है कि बीजेपी सिर्फ दिखावे का सम्मान देती है कि “अटल जी के नाम पर विश्वविद्यालय है, लेकिन वह अभी भी दूसरे कैंपस में चल रहा है.” वहीं बसपा का तर्क है कि उन्होंने सिर्फ उन नेताओं की मूर्तियां लगाईं, जिन्हें सम्मान मिलना बाकी था. बीजेपी का जवाब सीधा है कि “विपक्ष को हर अच्छे काम में राजनीति दिखती है.” इस बहस से साफ होता है कि मूर्तियां अब सिर्फ कला नहीं, पैमाने हैं कि कौन कितना मजबूत राजनीतिक संदेश देता है.
2027 पर इसका असर: क्या वोटर बदलेगा?
वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि यह पूरा ‘स्मारक मॉडल’ दरअसल लॉन्ग-टर्म स्ट्रैटेजी है. बीजेपी 2027 के चुनाव को ध्यान में रखकर अपनी जड़ों को और मजबूत कर रही है. स्मारकों और प्रेरणा स्थलों के ज़रिए पार्टी यह संदेश दे रही है कि उसकी विचारधारा सिर्फ कागजों में नहीं, ज़मीन पर भी दिखाई देती है. यह भी सच है कि यूपी में स्मारक अब सिर्फ पत्थर के ढांचे नहीं सत्ता की पहचान बन चुके हैं. हर सरकार अपनी विचारधारा को इन प्रतीकों में ढालकर वोट बैंक को मजबूत करना चाहती है.
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