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बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव की ये दुर्गति आखिर क्यों हुई? पांच बड़े कारण समझिए
Authored By: Nishant Singh
Published On: Friday, November 14, 2025
Last Updated On: Friday, November 14, 2025
ये चुनावी नतीजे सिर्फ हार नहीं, बल्कि एक बड़ा सवाल हैं- आख़िर तेजस्वी यादव की राजनीति अचानक कैसे ढह गई? जो नेता जीत का दावा कर रहे थे, वही आज अपनी सीट बचाने में मुश्किल महसूस कर रहे हैं. क्या वजह थी कि जनता ने उन्हें मौका देने के बजाय नकार दिया? जाति की राजनीति, गलत टिकट वितरण, ढीली रणनीति या सहयोगियों की अनदेखी? आइए इस पूरे चुनावी गेम में क्या हुआ, जाने इस आर्टिकल में…
Authored By: Nishant Singh
Last Updated On: Friday, November 14, 2025
Tejashwi Yadav: बिहार चुनाव 2025 के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि राजनीति सिर्फ भीड़ नहीं, रणनीति मांगती है. जो नेता कुछ महीने पहले तक मंच से जीत का दावा कर रहे थे, वही आज अपनी सीट बचाने के लिए जूझते नजर आए. सुबह 10:45 बजे के रुझानों में एनडीए 185 सीटों पर मजबूत दिखाई दी, जबकि महागठबंधन 54 सीटों तक सिमटता हुआ दिखा. यानी जनता ने सिर्फ वोट नहीं रोके, बल्कि साफ संदेश दिया- “विकल्प तब तक नहीं, जब तक भरोसा न हो.” तो सवाल ये है कि तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी आरजेडी इतनी बुरी तरह कैसे फिसल गई? ज़रा ध्यान से इन पांच वजहों पर गौर कीजिए.
1️. जाति की राजनीति उलटी पड़ी: 52 यादव उम्मीदवार का दांव भारी
बिहार की राजनीति में जाति एक हकीकत है, और यादव आरजेडी का कोर वोट बैंक. लेकिन इस बार जातीय संतुलन बनाने की जगह उसे असंतुलित कर दिया गया. कुल 144 उम्मीदवारों में 52 यादव प्रत्याशी, यानी लगभग 36% ने एक मजबूत संदेश दिया कि आरजेडी सिर्फ एक जाति की पार्टी है.
इस निर्णय ने गैर-यादव पिछड़ों, अतिपिछड़ों और सवर्ण मतदाताओं को और दूर धकेला. बीजेपी ने इस पर “यादव राज वापस आएगा” जैसा नैरेटिव जोरदार तरीके से फैलाया. नतीजा- जहां यादव वोट मिला, वहां मजबूती मिली, पर ओवरऑल सीटें टूटती चली गईं. अगर उम्मीदवारों की संख्या कम रखी जाती, जैसा अखिलेश यादव ने यूपी में किया था, शायद नतीजा बदल सकता था.
2️. सहयोगियों को बराबर सम्मान नहीं मिला
महागठबंधन नाम था, पर चाल और प्रचार आरजेडी-सेंट्रिक था. कांग्रेस, वाम दल और छोटी पार्टियों को ना तो पर्याप्त सीटें मिलीं और ना प्रचार में जगह. मंचों पर तस्वीरें थीं तो सिर्फ तेजस्वी की. घोषणापत्र का नाम रखा गया-“तेजस्वी प्रण” जो गठबंधन के बाकी दलों को सिर्फ साइड किरदार जैसा महसूस करवाता था.
सीट शेयरिंग विवाद, चुनावी रणनीति में एकाधिकार और साझा संदेश का अभाव- इसने गठबंधन को कमजोर किया. उधर NDAs की छवि एकजुट और संगठित दिखी, जो मतदाताओं को ज्यादा भरोसेमंद लगी.
3️. वादे तो बड़े-बड़े, पर प्लान गायब
तेजस्वी ने इस चुनाव में फिर वही सपना दिखाया- हर घर में सरकारी नौकरी. लेकिन इस बार जनता सवाल पूछने लगी- कब? कैसे? फंड कहां से आएगा?
बार-बार कहा गया कि ब्लूप्रिंट जल्द आएगा, पर वो दिन कभी नहीं आया. लोग नाराज नहीं हुए, बल्कि संशय में पड़ गए. मतदाताओं को लगा वादे सिर्फ चुनावी जुमले हैं, प्लान नहीं. आज के मतदाता को सिर्फ सपने नहीं चाहिए- रोडमैप भी चाहिए. और यहां तेजस्वी कमजोर साबित हुए.
4️. मुस्लिमपरस्ती का टैग भारी पड़ गया
महागठबंधन पर मुस्लिम झुकाव का आरोप नया नहीं था, लेकिन इस बार प्रचार में यह मुख्य मुद्दा बन गया. कई घोषणाओं ने इस धारणा को और मजबूत कर दिया.
खुद यादव और ओबीसी वोटों का एक हिस्सा इस बात से असहज हो गया कि कहीं सत्ता मिलते ही एकतरफा नीतियां ना बन जाएं. बीजेपी ने लालू यादव का पुराना संसद भाषण वायरल कर दिया, और “वक्फ बिल” को लेकर बड़ा राजनीतिक संदेश बना दिया.
- नतीजा: मुस्लिम वोट तो मजबूत मिला, लेकिन बाकी वोट टूट गए.
5️. लालू की विरासत को लेकर दोहरा रवैया
तेजस्वी कभी लालू मॉडल को अपनाते दिखे, तो कभी उससे दूरी बनाते. पोस्टरों में लालू की तस्वीरें छोटी, भाषणों में उनके नाम का सीमित जिक्र- यह रणनीति मतदाताओं को समझ नहीं आई.
- मोदी ने इसे और हवा दी- “तेजस्वी लालू के पाप छुपा रहे हैं.”
- यह बयान सिर्फ राजनीतिक हमला नहीं था, बल्कि मतदाताओं के दिमाग में बैठा सवाल-“क्या बिहार फिर वैसा ही होगा?”
- तेजस्वी ना तो पूरी तरह “नया नेतृत्व” बन पाए और ना ही लालू की विरासत को आत्मविश्वास से ला पाए.
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