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आपातकाल 1975: पुत्रमोह में इंदिरा गांधी के कई फैसलों ने इकनॉमी को पहुंचाया भारी नुकसान
आपातकाल 1975: पुत्रमोह में इंदिरा गांधी के कई फैसलों ने इकनॉमी को पहुंचाया भारी नुकसान
Authored By: Suman
Published On: Wednesday, June 25, 2025
Last Updated On: Wednesday, June 25, 2025
Emergency 50th Anniversary: आपातकाल के लिए बने माहौल की एक वजह तत्कालीन इंदिरा सरकार का आर्थिक कुप्रबंधन (Economic Mismanagement and Crisis) भी था.
Authored By: Suman
Last Updated On: Wednesday, June 25, 2025
Emergency 50th Anniversary: आज 25 जून को आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ है जिसे भारत के इतिहास के सबसे काले अध्याय में से एक माना जाता है. आपातकाल के लिए माहौल किस तरह से बना, तत्कालीन प्रधानमंत्री इदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने आपातकाल क्यों लगाया इसके पीछे उस वक्त की राजनीतिक परिस्थितियों को जिम्मेदार माना जाता है, लेकिन इसकी एक वजह उनकी सरकार का आर्थिक कुप्रबंधन (economic mismanagement and crisis) भी था.
जब इंदिरा गांधी 1966 में पहली बार प्रधानमंत्री बनीं तो विरासत में एक कमजोर अर्थव्यवस्था मिली थी. तब भारत के विकास के लिए कमजोर नियोजन के बारे में कई अर्थशास्त्री सवाल उठा रहे थे. ऐसे समय में देश को जरूरत थी कि सरकारी उद्यमों के अधिकार कम किए जाएं, निजी व्यवसायों की वृद्धि पर लगाम को हटाया जाए, और इस तरह अर्थव्यवस्था में वृद्धि से प्राप्त धन को गरीबों के कल्याण योजनाओं के लिए लगाया जाए.
अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह सरकारी नियंत्रण
लेकिन अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह सरकारी नियंत्रण था और लाइसेंस, परमिट, कोटा राज हावी था. गरीबी और महंगाई चरम पर थी. इमरजेंसी के एक साल पहले 1973-74 के आंकड़ों के अनुसार देश की करीब 55 फीसदी जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही थी.
इंदिरा गांधी ने इसके पहले के चुनाव में गरीबी हटाओ का नारा दिया था, लेकिन सच तो यह है कि गरीबी उन्मूलन के लिए आवंटित राशि का वास्तव में केवल 4 फीसदी हिस्सा ही गरीब कल्याण योजनाओें पर खर्च हुआ.
इंदिरा गांधी के कई सलाहकारों जैसे एलके झा, पीएन धर, आईजी पटेल आदि ने इसी तरह की सलाह दी लेकिन संजय गांधी के नेतत्व वाला युवा तुर्क इससे सहमत नहीं था. वे चाहते थे कि इंदिरा गांधी अधिक कट्टर और सरकारी दखल वाली आर्थिक योजना पर आगे बढ़ें.
सरकार के लिए यह राजनीतिक मजबूरी थी कि कम्युनिस्टों का समर्थन हासिल किया जाए और इसीलिए नीति निर्माण में कम्युनिस्ट नीतियों को ज्यादा जगह दी गई.
एल के झा और आईजी पटेल की जगह सरकार में पीएन हक्सर की दखल बढ़ गई जो राजनयिक थे और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रह चुके थे. इसी तरह एक कश्मीरी राजनीतिज्ञ डीपी धर का भी वजन बढ़ा जो भारतीय राज्य की क्षमताओं को लेकर अतिरेकी सोच रखते थे.
धर ने इंदिरा गांधी को इस बात के लिए राजी किया कि गेहूं के थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया जाए ताकि बिचौलियों की भूमिका खत्म हो.
लेकिन यह प्रयोग देश के लिए घातक साबित हुआ. तब भी इस प्रयोग पर कई इकनॉमिस्ट ने सवाल उठाए थे. गेहूं की खरीद में भारी गिरावट आई और खाने-पीने के सामान के दाम खूब बढ़ गए. इंदिरा गांधी को गेहूं के व्यापार का राष्ट्रीयकरण खत्म करना पड़ा और महंगाई पर रोक के लिए कई सादगी अपनाने के कदम उठाने पड़े. हालांकि इसके बावजूद उनके कम्युनिस्ट विचारधारा वाले समर्थकों का प्रभाव बना रहा.
किचन कैबिनेट का बढ़ता प्रभाव
इंदिरा गांधी पर उनके बेटे संजय गांधी (Sanjay Gandhi) और उनकी किचन कैबिनेट का प्रभाव बढ़ता जा रहा था जिसकी वजह से कई नीतिगत निर्णय ऐसे लिए गए जिनके प्रभाव के बारे कोई सोच-विचार नहीं हुआ इससे देश की इकनॉमी और राजनीति को भारी नुकसान हुआ.
सुस्त औद्योगिक वृद्धि, बढ़ती बेरोजगारी और आसमान छूती महंगाई से सरकार के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा था. 1975 और 1976 में महंगाई की दर 11 फीसदी से ऊपर थी.
विपक्ष ने करिश्माई नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इस असंतोष का फायदा उठाने की पूरी कोशिश की और 1974 में संपूर्णक्रांति का आह्वान कर दिया गया इसमें राजनीति से भ्रष्टाचार को खत्म करना और महंगाई घटना प्रमुख नारा था. लेकिन इंदिरा गांधी ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए आपातकाल लगाने जैसे बहुत कठोर कदम उठाने का फैसला किया.