कहां चूक गए PK? जन सुराज के फेल होने के 5 बड़े कारण

Authored By: Ranjan Gupta

Published On: Friday, November 14, 2025

Last Updated On: Friday, November 14, 2025

Prashant Kishore और जन सुराज की असफलता के 5 बड़े कारणों का विश्लेषण
Prashant Kishore और जन सुराज की असफलता के 5 बड़े कारणों का विश्लेषण

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में प्रशांत किशोर की नई पार्टी ‘जन सुराज’ पर सबकी निगाहें थीं. तीन साल की पदयात्रा, ज़मीनी मुहिम और नई राजनीति का वादा…फिर भी पार्टी एक भी सीट पर बढ़त नहीं बचा सकी. शुरुआत में मिली सनसनीखेज लीड अचानक क्यों गायब हो गई? ग्रामीण इलाकों से लेकर जातीय समीकरणों तक, आखिर कहां हुई सबसे बड़ी चूक? इस लेख में पढ़िए जन सुराज की हार के पांच असली कारण जो पूरे चुनावी माहौल को बदल गए.

Authored By: Ranjan Gupta

Last Updated On: Friday, November 14, 2025

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की मतगणना में सबसे बड़ा झटका उस पार्टी को लगा, जिससे सबसे ज़्यादा उम्मीदें थीं- प्रशांत किशोर (Prashant Kishore) की ‘जन सुराज’. शुरुआती रुझानों में जब जन सुराज तीन सीटों पर आगे दिखी तो लगा कि पीके का तीन साल का मेहनती अभियान रंग ला रहा है. लेकिन कुछ ही घंटों में यह बढ़त गायब हो गई और पार्टी शून्य पर सिमट गई.

राजनीतिक गलियारों में यह बड़ा सवाल चर्चा में है कि आख़िर पीके का ‘बिहार मॉडल’ क्यों नहीं चला? 240 सीटों पर उम्मीदवार उतारने, लगातार पदयात्रा करने और रोजगार-शिक्षा जैसे मुद्दों को केंद्र में लाने के बावजूद मतदाता जन सुराज के साथ क्यों नहीं आए?
इस चुनावी नतीजे ने साफ कर दिया कि बिहार की राजनीति सिर्फ मुद्दों पर नहीं, बल्कि संगठन, जातीय गणित, स्थानीय पकड़ और नेतृत्व की विश्वसनीयता पर भी टिकती है. पीके का यह चुनावी प्रयोग क्यों असफल रहा और इसकी अंदरूनी वजहें क्या हैं. आइए, इन्हें एक-एक करके समझते हैं.

1. ग्रामीण इलाकों में कमजोर पकड़ और सीमित पहचान

बिहार की राजनीति का असली असर गांवों से तय होता है. लेकिन जन सुराज गांवों में उम्मीद के मुताबिक पकड़ नहीं बना पाई. पीके की लंबी पदयात्रा, लगातार बैठकें और महीनों की मेहनत के बावजूद पार्टी की पहचान जमीन पर कमजोर ही रही. कई इलाकों में लोग पार्टी का चुनाव चिन्ह तक याद नहीं रख पाए. उम्मीदवारों का चेहरा भी लोगों के दिमाग में नहीं बैठा. दूसरी तरफ, पुराने दलों के संगठन गांवों में गहरे पैठे थे. उनका नेटवर्क हर टोले और हर घर तक पहुंच रखता था. मुकाबले में जन सुराज की मौजूदगी हल्की और सतही दिखी. नतीजा, गांवों का बड़ा वोट बैंक पार्टी से दूर ही रह गया.

2. संगठन की कमजोरी और टिकट बंटवारे में भारी नाराज़गी

जन सुराज की सबसे बड़ी दिक्कत उसका कमजोर संगठन रहा. शुरुआत से ही पार्टी मजबूत ढांचा खड़ा नहीं कर सकी. पीके ने संरचना पर कम और अपनी ब्रांड इमेज पर ज्यादा जोर दिया. इसी वजह से कई पुराने और मेहनती कार्यकर्ता टिकट नहीं पा सके. वहीं कई नए और “ऊपर से आए” उम्मीदवार सीधे मैदान में उतार दिए गए. इस फैसले ने अंदर ही अंदर नाराज़गी बढ़ा दी. कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया. पूर्व आईपीएस आनंद मिश्रा जैसे चेहरे का पार्टी छोड़ना भी यह दिखाता है कि अंदरूनी हालात ठीक नहीं थे. ऐसे माहौल में पार्टी पूरे दमखम के साथ चुनावी रेस में उतर ही नहीं पाई.

3. जातीय राजनीति के ढांचे को तोड़ने में नाकामी

बिहार की राजनीति आज भी जातीय समीकरणों पर ही टिकी हुई है. यही वह मोर्चा था जहां जन सुराज की “नई राजनीति” कमजोर पड़ गई. पीके ने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और शराबबंदी जैसे मुद्दों को जाति की राजनीति का विकल्प बनाने की कोशिश की, लेकिन यह प्रयास जमीन पर असर नहीं छोड़ पाया. मतदाता अपनी पुरानी जातीय लाइन से बाहर नहीं निकले. मुस्लिम वोटरों ने RJD-कांग्रेस को बीजेपी रोकने का सुरक्षित रास्ता माना. अन्य जातीय समूह भी अपने स्थापित राजनीतिक खेमों में टिके रहे. इस वजह से नई राजनीति का संदेश वास्तविक जातीय गणित के सामने फीका पड़ गया.

4. पुराने दलों का दबाव और उम्मीदवारों का हटना

चुनाव के दौरान सबसे बड़ा विवाद तब उठा जब पीके ने आरोप लगाया कि बीजेपी समेत कई दल उनके उम्मीदवारों पर दबाव बना रहे हैं. कहीं डराया जा रहा है, तो कहीं लालच देकर नामांकन वापस लेने को कहा जा रहा है. कई उम्मीदवारों का अचानक मैदान से हटना पार्टी के लिए बड़ा झटका था. इससे यह साफ संदेश गया कि पुराने दल इस नए प्रयोग को जमीन नहीं पकड़ने देना चाहते. पीके ने इसे “जनतंत्र की हत्या” बताया, लेकिन इसका सीधा नुकसान जन सुराज की छवि और मनोबल पर हुआ. पार्टी कमजोर दिखने लगी और उसकी संघर्ष क्षमता पर सवाल उठने लगे.

5. प्रशांत किशोर का खुद चुनाव न लड़ना

पूरे अभियान के दौरान सबसे बड़ा सवाल यही रहा कि जब पार्टी पूरी तरह पीके के नाम और पहचान पर टिकी है, तो वे खुद चुनाव क्यों नहीं लड़ रहे? भारतीय राजनीति में यह परंपरा रही है कि नेता खुद मैदान में उतरकर नेतृत्व की ताकत दिखाते हैं. लेकिन पीके के न लड़ने से मतदाताओं में शक बढ़ा कि क्या वे सच में सत्ता की लड़ाई में गंभीर हैं या यह सिर्फ एक प्रयोग है. कई समर्थक भी इस फैसले से निराश हुए. नतीजतन, मतदाता नेतृत्व की प्रतिबद्धता और पार्टी के भविष्य को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाए.

यह भी पढ़ें :- Bihar Election 2025 Result live: रुझानों में NDA को बंपर बहुमत, महागठबंधन का बुरा हाल

About the Author: Ranjan Gupta
रंजन कुमार गुप्ता डिजिटल कंटेंट राइटर हैं, जिन्हें डिजिटल न्यूज चैनल में तीन वर्ष से अधिक का अनुभव प्राप्त है. वे कंटेंट राइटिंग, गहन रिसर्च और SEO ऑप्टिमाइजेशन में माहिर हैं. शब्दों से असर डालना उनकी कला है और कंटेंट को गूगल पर रैंक कराना उनका जुनून! वो न केवल पाठकों के लिए उपयोगी और रोचक लेख तैयार करते हैं, बल्कि गूगल के एल्गोरिदम को भी ध्यान में रखते हुए SEO-बेस्ड कंटेंट तैयार करते हैं. रंजन का मानना है कि "हर जानकारी अगर सही रूप में दी जाए, तो वह लोगों की जिंदगी को प्रभावित कर सकती है." यही सोच उन्हें हर लेख में निखरने का अवसर देती है.
Leave A Comment

अन्य खबरें