किन-किन फैक्टर्स से तय होते हैं फिल्मों की टिकटों के दाम? जानिए थिएटर में टिकट प्राइस तय होने की पूरी प्रक्रिया
Authored By: Ranjan Gupta
Published On: Thursday, November 13, 2025
Updated On: Thursday, November 13, 2025
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि अगर मल्टीप्लेक्स फिल्म टिकटों के दामों में कटौती नहीं करेंगे तो भविष्य में थिएटर खाली नजर आ सकते हैं. आम दर्शक के लिए बढ़ती टिकट कीमतें बोझ बन चुकी हैं. आखिर सिनेमाघरों में टिकट प्राइस तय कैसे होते हैं और किन फैक्टर्स पर निर्भर करते हैं जानते हैं विस्तार से.
Authored By: Ranjan Gupta
Updated On: Thursday, November 13, 2025
Movie Ticket Pricing Factors: एक समय था जब नई फिल्म रिलीज़ होती थी तो सिनेमाघरों की टिकट खिड़कियों पर दर्शकों की लंबी कतारें लग जाती थीं. लेकिन अब जमाना डिजिटल हो गया है. लोग मोबाइल से ही ऑनलाइन टिकट बुक कर लेते हैं. इस बीच, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में टिप्पणी की है कि अगर मल्टीप्लेक्स और थिएटर्स टिकटों की कीमतों में कटौती नहीं करेंगे, तो भविष्य में सिनेमाघर खाली हो सकते हैं. कोर्ट का कहना है कि मौजूदा समय में टिकट दाम इतने अधिक हैं कि यह आम जनता की जेब पर भारी पड़ रहे हैं.
इस टिप्पणी के बाद एक बार फिर यह बहस तेज हो गई है कि आखिर फिल्मों की टिकट की कीमतें तय कैसे होती हैं और किन मानकों पर उनका निर्धारण किया जाता है. दरअसल, टिकट प्राइसिंग एक जटिल प्रक्रिया है, जो पांच प्रमुख कारकों राज्य सरकार की नीति, मल्टीप्लेक्स की रणनीति, प्रोड्यूसर-डिस्ट्रीब्यूटर की हिस्सेदारी, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म टैक्स और फूड एंड बेवरेज पर आधारित होती है. आइए जानते हैं इन सभी पहलुओं को विस्तार से.
5 फैक्टर्स से तय होती है टिकट की कीमत
सिनेमाघरों में फिल्म की टिकट कितने की मिलेगी, यह एक नहीं बल्कि पांच फैक्टर्स पर निर्भर करता है. इनमें शामिल हैं राज्य सरकार की नीतियां, मल्टीप्लेक्स की रणनीति, प्रोड्यूसर और डिस्ट्रीब्यूटर का हिस्सा, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का टैक्स और फूड-ड्रिंक की कीमतें. इन्हीं सबके आधार पर थिएटर्स टिकट की फाइनल कीमत तय करते हैं. आइए समझते हैं कि ये पूरा सिस्टम कैसे चलता है-
- राज्य सरकार
- मल्टीप्लेक्स की रणनीति
- प्रोड्यूसर-डिस्ट्रीब्यूटर का हिस्सा
- ऑनलाइन टिकट टैक्स
- फूड एंड वेबरेज
1 राज्य सरकार तय करती है प्राइस कैप
फिल्म टिकट की बेसिक कीमत राज्य सरकार तय करती है. हर राज्य अपने हिसाब से प्राइस कैप या सीलिंग बनाता है. दक्षिण भारत के राज्यों में ये नियम सख्त हैं. कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में सरकारें टिकट दरों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं.
तमिलनाडु में मल्टीप्लेक्स टिकट का दाम आमतौर पर 150 से 200 रुपये तक होता है, जबकि छोटे शहरों या ग्रामीण इलाकों में यह 120 रुपये से ऊपर नहीं जाता. वहीं, दिल्ली, महाराष्ट्र, यूपी और गुजरात जैसे राज्यों में स्लैब सिस्टम लागू है. मॉर्निंग शो सस्ते, जबकि इवनिंग शो महंगे. यहां सरकार सिर्फ गाइडलाइन देती है, बाकी रेट मार्केट डिमांड तय करती है.
2. मल्टीप्लेक्स की रणनीति और टिकट प्राइस
मल्टीप्लेक्स अपने टिकट दाम फिक्स नहीं रखते. वे सरकार के तय प्राइस कैप के अंदर रहकर डिमांड के हिसाब से कीमतें बदलते हैं. अगर किसी फिल्म की डिमांड ज्यादा है, तो टिकट दरें भी बढ़ जाती हैं.
वीकेंड, बड़े स्टार की रिलीज, प्राइम टाइम शो या फेस्टिवल सीजन में टिकट दाम बढ़ना आम बात है. अगर किसी शो में 80% से ज्यादा सीटें भर जाती हैं, तो अगले शो की कीमत लगभग तय रूप से बढ़ जाती है.
3. प्रोड्यूसर-डिस्ट्रीब्यूटर का हिस्सा
टिकट से होने वाली कमाई में प्रोड्यूसर और डिस्ट्रीब्यूटर की बड़ी हिस्सेदारी होती है. आमतौर पर रिलीज के पहले हफ्ते में इन्हें लगभग 60% तक हिस्सा मिलता है. बाद के हफ्तों में यह प्रतिशत धीरे-धीरे घटता जाता है.
मल्टीप्लेक्स और थिएटर का मार्जिन लगभग स्थिर रहता है. इसी वजह से वे शुरुआत में टिकट प्राइस ज्यादा रखते हैं, ताकि उनका फायदा सुरक्षित रहे और नुकसान न हो.
4. ऑनलाइन प्लेटफॉर्म टैक्स
आज ज्यादातर लोग फिल्म की टिकटें ऑनलाइन बुक करते हैं जैसे बुकमायशो या पे-टीएम मूवीज. इन प्लेटफॉर्म्स पर टिकट के साथ एक अतिरिक्त “कन्वीनियंस फीस” लगती है.
कभी-कभी ऑफर या कूपन कोड लगाकर कीमत थोड़ी कम दिखाई देती है, लेकिन टैक्स जोड़ने के बाद दर्शक से पूरा अमाउंट वसूला जाता है. यानी ऑनलाइन बुकिंग आसान है, लेकिन थोड़ी महंगी भी पड़ती है.
5. फूड एंड वेबरेज से होती है ज्यादा कमाई
मल्टीप्लेक्स की असली कमाई फिल्मों से नहीं, बल्कि खाने-पीने से होती है. वे टिकट के दाम थोड़ा कम रखकर फूड और ड्रिंक के दाम बढ़ा देते हैं, ताकि मुनाफा बढ़ सके.
उदाहरण के तौर पर, अगर टिकट 200-300 रुपये की है, तो वहीं पॉपकॉर्न और कोल्ड ड्रिंक का कॉम्बो 500 रुपये से ज्यादा का होता है. यही वजह है कि थिएटर में फिल्म के साथ स्नैक्स खरीदना अक्सर जेब पर भारी पड़ता है.
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