Eid Al-Adha 2025 कब है? जानिए Bakrid का इतिहास, महत्व, परंपराएं और सही तारीख
Authored By: Nishant Singh
Published On: Friday, June 6, 2025
Last Updated On: Saturday, June 7, 2025
ईद-अल-अधा (Eid Al-Adha 2025), जिसे बकरीद (Bakrid) भी कहा जाता है, त्याग, भक्ति और इंसानियत का त्योहार है. यह त्योहार पैगंबर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की उस महान कुर्बानी की याद दिलाता है, जिसने ईमान और समर्पण की मिसाल कायम की. कुर्बानी के पशु की बलि केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि समाज में भाईचारे, समानता और जरूरतमंदों की मदद का भी प्रतीक है. देश-विदेश में यह पर्व प्रेम, एकता और खुशियों का संदेश फैलाता है. इस लेख में जानिए इस पवित्र त्योहार का इतिहास, महत्व, परंपराएं और सामाजिक भूमिका.
Authored By: Nishant Singh
Last Updated On: Saturday, June 7, 2025
हर साल जब ईद-अल-अधा आती है, तो पूरे मुस्लिम समाज में एक खास रौनक और श्रद्धा की लहर दौड़ जाती है. इस साल 7 जून 2025 को मनाया जाएगा. इसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है और यह इस्लाम धर्म का एक पवित्र और महत्वपूर्ण त्योहार है. यह त्योहार त्याग, ईमान और अल्लाह के प्रति सच्ची भक्ति का प्रतीक है. बकरीद का संबंध पैगंबर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की उस ऐतिहासिक कुर्बानी से है, जहाँ उन्होंने अल्लाह के हुक्म पर अपने बेटे की कुर्बानी देने का संकल्प लिया था. यह पर्व न सिर्फ धार्मिक परंपराओं को निभाने का मौका देता है, बल्कि जरूरतमंदों की मदद करने, आपसी भाईचारा बढ़ाने और समाज में प्यार और शांति फैलाने का भी संदेश देता है
ईद-अल-अधा क्या है?

ईद-अल-अधा, जिसे आम भाषा में बकरीद कहा जाता है, इस्लाम धर्म का एक बेहद पवित्र और भावनात्मक त्योहार है. यह त्योहार कुरबानी और सच्चे विश्वास की मिसाल है. इस दिन मुसलमान पैगंबर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की उस महान भक्ति को याद करते हैं, जब उन्होंने अल्लाह के हुक्म पर अपने बेटे की कुर्बानी देने का निश्चय किया. अल्लाह ने उनकी नीयत देखकर उनके बेटे की जगह एक मेंढे को भेजा. उसी स्मृति में आज मुसलमान इस दिन जानवर की कुर्बानी करते हैं. कुर्बानी का मांस तीन हिस्सों में बाँटा जाता है – एक हिस्सा गरीबों को, दूसरा रिश्तेदारों को, और तीसरा अपने परिवार के लिए रखा जाता है. यह त्योहार सिर्फ जानवर की कुर्बानी नहीं, बल्कि अपने अंदर के घमंड, लालच और खुदगर्जी को कुर्बान करने का भी पैगाम देता है.
ईद-अल-अधा का इतिहास

ईद-अल-अधा की जड़ें इतिहास के उस सुनहरे पल से जुड़ी हैं, जब इंसान ने ईमान और अल्लाह की रज़ा को सबसे ऊपर रखा. पैगंबर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह ने परीक्षा में डाला—क्या वे अपने सबसे प्यारे बेटे इस्माईल (अलैहिस्सलाम) को उसकी राह में कुर्बान कर सकते हैं? बिना सवाल किए, उन्होंने बेटे को साथ लिया और अल्लाह की आज्ञा पूरी करने चले. जब इब्राहीम ने बेटे की आंखों पर पट्टी बांधकर कुर्बानी देनी चाही, तब अल्लाह ने उनका इम्तिहान पास मानकर, बेटे की जगह एक दुम्बा (भेड़) भेज दिया. यह घटना इस्लामी आस्था में समर्पण, त्याग और अल्लाह पर भरोसे की सबसे बड़ी मिसाल बन गई. तभी से ईद-अल-अधा हर साल हमें याद दिलाती है कि सच्ची इबादत सिर्फ जुबान से नहीं, बल्कि दिल और कर्म से होती है.
बकरीद (कुर्बानी) का महत्व

धार्मिक आधार पर कुर्बानी
कुर्बानी का सीधा संबंध पैगंबर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की उस ऐतिहासिक घटना से है जहाँ उन्होंने अल्लाह की आज्ञा को सर्वोपरि मानते हुए अपने बेटे को कुर्बान करने की नीयत जताई. यह कुर्बानी केवल एक रस्म नहीं, बल्कि एक सबक है — कि जब इंसान अल्लाह पर पूरी तरह यकीन करता है, तो वह हर मुश्किल राह को भी इबादत समझकर पार कर लेता है.
कुर्बानी की परंपरा का महत्व
हर साल मुसलमान बकरीद के मौके पर जानवर की कुर्बानी करते हैं, जो पैगंबर इब्राहीम की उस भक्ति और समर्पण की याद है. इस प्रथा के पीछे मक़सद सिर्फ जानवर को ज़बह करना नहीं, बल्कि अपनी नीयत, ईमान और इंसानियत की भी कुर्बानी देना है — जैसे घमंड, स्वार्थ और नफ़रत को दिल से मिटाना.
समाज में कुर्बानी की भूमिका
कुर्बानी केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि यह समाज में समानता और इंसानियत की भावना को भी मजबूत करती है. कुर्बानी के मांस को तीन हिस्सों में बांटकर गरीबों और जरूरतमंदों तक पहुंचाया जाता है, जिससे समाज में भाईचारे और मदद की भावना को बढ़ावा मिलता है.
आध्यात्मिक संदेश
कुर्बानी हमें यह सिखाती है कि असली भक्ति सिर्फ इबादतगाहों में सिर झुकाने से नहीं, बल्कि दूसरों की मदद करने और अपने नफ्स (अहंकार) को कुर्बान करने से होती है. यह त्योहार हर साल हमें यह याद दिलाता है कि अल्लाह को हमारे दिल की सच्चाई चाहिए, ना कि सिर्फ बाहरी दिखावा.
ईद-अल-अधा कब और कैसे मनाई जाती है?
त्योहार की तिथियाँ और शुरुआत
ईद-अल-अधा, इस्लामी कैलेंडर के 12वें महीने ‘ज़िल-हज्ज’ की 10वीं तारीख को मनाई जाती है. यह त्योहार हज यात्रा के समापन पर आता है, जो इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है. इस साल 7 जून 2025 को है. इसकी तारीख हर साल ग्रेगोरियन कैलेंडर में बदलती रहती है, क्योंकि इस्लामी महीना चांद के अनुसार तय होता है.
ईद की नमाज़ और उसका महत्व
सुबह-सुबह मुसलमान नए कपड़े पहनकर, इत्र लगाकर और खुद को साफ-सुथरा बनाकर ईदगाह या मस्जिद में ईद की विशेष नमाज़ पढ़ते हैं. यह नमाज़ दो रकात होती है और उसके बाद इमाम खुत्बा (भाषण) देता है, जिसमें कुर्बानी और समाजसेवा की अहमियत समझाई जाती है.
कुर्बानी की रस्में
नमाज़ के बाद मुसलमान जानवर की कुर्बानी करते हैं — जैसे बकरा, भैंस, ऊंट या गाय (जहां अनुमति हो). जानवर का चुनाव खास नियमों के अनुसार किया जाता है: वह स्वस्थ, निर्दोष और एक निर्धारित उम्र का होना चाहिए. कुर्बानी के बाद मांस को तीन बराबर हिस्सों में बांटा जाता है — एक हिस्सा गरीबों को, दूसरा रिश्तेदारों और दोस्तों को, और तीसरा अपने घर के लिए.
परिवार और सामाजिक जुड़ाव
ईद के दिन लोग अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलते हैं, बच्चों को ईदी (पैसे या तोहफे) दी जाती है, और तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते हैं जैसे सीवईं, कबाब, बिरयानी आदि. यह दिन खुशियाँ बाँटने, एक-दूसरे के गिले-शिकवे दूर करने और समाज में एकता और प्रेम फैलाने का दिन होता है.
कुर्बानी के पशु और नियम
ईद-अल-अधा पर कुर्बानी के लिए विशेष प्रकार के जानवरों का चयन करना जरूरी होता है. शरीयत के अनुसार जानवर स्वस्थ, निर्दोष और निर्धारित उम्र का होना चाहिए. बकरी, भेड़, गाय, भैंस और ऊँट कुर्बानी के लिए उपयुक्त माने जाते हैं. जानवर को दया और अनुशासन के साथ ज़बह किया जाता है, और अल्लाह का नाम लेकर कुर्बानी दी जाती है. इसका उद्देश्य सिर्फ जानवर की बलि नहीं, बल्कि अपने भीतर के अहंकार और स्वार्थ को भी कुर्बान करना होता है.
- जानवर स्वस्थ, निर्दोष और तय उम्र का होना चाहिए.
- बकरी/भेड़ – 1 साल, गाय/भैंस – 2 साल, ऊँट – 5 साल का.
- लंगड़ा, अंधा या बीमार जानवर मान्य नहीं.
- कुर्बानी से पहले जानवर को पानी और देखभाल दी जाती है.
- ज़बह करते समय “बिस्मिल्लाह, अल्लाहु अकबर” कहा जाता है.
- मांस को तीन हिस्सों में बांटना – गरीबों, रिश्तेदारों और खुद के लिए.
ईद-अल-अधा की सामाजिक और आर्थिक भूमिका

ईद-अल-अधा सिर्फ एक धार्मिक त्योहार नहीं, बल्कि सामाजिक सेवा और आर्थिक सहयोग का प्रतीक भी है. कुर्बानी का मांस गरीबों और जरूरतमंदों तक पहुँचाकर यह त्योहार समाज में समानता और इंसानियत का संदेश देता है. इससे न सिर्फ भूखे पेटों को खाना मिलता है, बल्कि दिलों में मोहब्बत भी बढ़ती है. अमीर और गरीब के बीच का फासला कम होता है. इसके अलावा, कुर्बानी से जुड़ी गतिविधियाँ – जैसे जानवरों की खरीद-फरोख्त, कारोबार, कपड़े, पकवान – से बाजार में आर्थिक रौनक भी आती है, जिससे हज़ारों लोगों को रोज़गार मिलता है.
- कुर्बानी का मांस गरीबों में बाँटने से सामाजिक समानता.
- जरूरतमंदों की मदद से इंसानियत और भाईचारा बढ़ता है.
- पशु व्यापार, कपड़े, खाने-पीने से आर्थिक गतिविधियाँ तेज़ होती हैं.
- छोटे कारोबारियों और मजदूरों को त्योहार से रोज़गार मिलता है.
- परिवारों में मेल-जोल और रिश्तों की मिठास बढ़ती है.
दुनिया भर में ईद-अल-अधा का उत्सव
ईद-अल-अधा पूरी दुनिया में मुसलमानों द्वारा बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाई जाती है, हालांकि हर देश की अपनी अलग परंपराएँ होती हैं. सऊदी अरब में हज के साथ जुड़ा यह दिन सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन बनता है. तुर्की में लोग सामूहिक रूप से कुर्बानी करते हैं और पड़ोसियों के बीच मांस बांटा जाता है. भारत और पाकिस्तान में मस्जिदों और गलियों में रौनक होती है, स्वादिष्ट पकवानों और मेहमाननवाज़ी की धूम रहती है. अफ्रीका से लेकर यूरोप और अमेरिका तक, हर देश में यह पर्व प्रेम, सहयोग और सेवा की भावना से मनाया जाता है.
- सऊदी अरब: हज और मक्का में सबसे बड़ा आयोजन.
- तुर्की: सामूहिक कुर्बानी और सामाजिक बाँटवारा.
- भारत/पाकिस्तान: पारिवारिक मिलन, पकवान और मेले.
- अफ्रीकी देश: पारंपरिक नृत्य और सामूहिक दुआएँ.
- यूरोप/अमेरिका: मस्जिदों में नमाज़ और सांस्कृतिक कार्यक्रम.
- हर जगह एक बात समान — भाईचारा, सेवा और श्रद्धा.