आनंद नृत्य के समान वृंदावन के मंदिरों की होली : सद्गुरु जग्गी वासुदेव

आनंद नृत्य के समान वृंदावन के मंदिरों की होली : सद्गुरु जग्गी वासुदेव

Authored By: स्मिता

Published On: Tuesday, March 11, 2025

Last Updated On: Tuesday, March 11, 2025

वृंदावन के मंदिरों में आनंदमय होली उत्सव - सद्गुरु जग्गी वासुदेव
वृंदावन के मंदिरों में आनंदमय होली उत्सव - सद्गुरु जग्गी वासुदेव

Holi 2025 : वृंदावन में जब पहली बार होली खेली गयी, तो यह आनंद नृत्य के समान थी. नृत्य में मगन होकर श्रीकृष्ण और राधा ने रासलीला रचाई, जिसे देखने के लिए शिवजी ने स्त्री वेष धारण किया था.

Authored By: स्मिता

Last Updated On: Tuesday, March 11, 2025

कृष्ण ने राधा और गोपियों के साथ यमुना किनारे जब पहली रास लीला रचाई, तो उसे देखने का मोह भगवान शिव भी नहीं छोड़ पाए. ध्यान लगाना छोडक़र उन्होंने गोपी के वेश में लीला में शामिल होकर उस दिव्य आनंद (Holi 2025 ) का पान किया. यूं तो कृष्ण का जन्म एक राज परिवार में हुआ था, लेकिन उनका लालन-पालन एक ग्वाला परिवार में हुआ. उनको पालने वाले पिता नंद राजसी ठाठ से वह कोसों दूर थे. मां यशोदा ने कृष्ण को जन्म नहीं दिया था, लेकिन वह खुद इस बात को नहीं जानती थीं. जन्म के साथ ही कृष्ण को भगवान के अवतार के रूप में देखा गया था. कृष्ण ने ही सबसे पहली होली खेली, जो आनंद नृत्य (Holi 2025 ) के समान थी.

तारणहार कृष्ण ने लोगों को दिलाई पीड़ा से मुक्ति

श्रीकृष्ण के जन्म से पहले ही उनके बारे में तमाम तरह की भविष्यवाणियां की गई थीं. कुछ योगी खासतौर पर प्राचीन काल के महान ऋषि कृष्ण द्वैपायन जो आगे चलकर व्यास मुनि के नाम से जाने गए, एक अनूठे बच्चे की खोज में थे, जिसका जन्म एक खास दिन को होना था. इस दौरान उन्हें कृष्ण के धरती पर आने के बारे में पता लगा. वैसे भी उनके आने का इंतजार योगी बहुत लंबे समय से कर रहे थे. जन्म के साथ ही कृष्ण को ‘तारणहार’ कहा गया. उनको लेकर हुई भविष्यवाणियों और गणनाओं की वजह से माना जा रहा था कि वह लोगों को उनके दुख, दर्द और पीड़ा से मुक्ति दिलाएंगे. बाद में जिस तरह वह धरती पर जिए और जैसे उपदेश उन्होंने लोगों को दिए, उससे उनके बारे में की गई सभी भविष्यवाणियां सही साबित हुईं.

वृंदावन की हरियाली और समृद्धि की प्रेरणा

जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूं कि गोकुल और बरसाना के लोग वृंदावन नाम की एक जगह पर जाकर बस गए थे. वृंदावन काफी खुली और हरी-भरी जगह थी. ये नई बस्ती कई मायनों में पुरानी मान्यताओं को तोडऩे वाली और ज्यादा खुशहाल साबित हुई. चूंकि ये लोग अपने पुराने परंपरागत घर छोडक़र आए थे, इसलिए इनके पास पहले से अधिक आजादी थी. यह नई जगह ज्यादा समृद्ध और खूबसूरत थी. खासतौर पर युवाओं और बच्चों को यहां इतनी आजादी मिली, जिसे उन्होंने पहले महसूस नहीं किया था. यहां चीजें वाकई काफी अलग थीं. लोगों के पास समृद्धि थी और खुलकर जीने का एक नया अहसास था. इनमें बच्चे भी शामिल थे.

राधा का हर्ष और उल्लास

इन बच्चों के समूह में राधे थोड़ी बड़ी थीं। वह कभी किसी दायरे में बंधकर नहीं रही और उसे समाज में एक अलग ही आजादी मिली थी. ऐसी आजादी, जिसके बारे में दूसरी लड़कियां सोच भी नहीं सकती थीं. राधे लड़कियों का नेतृत्व करती थीं, जबकि कृष्ण लडक़ों का और फिर इन दोनों की अगुआई में हर्ष और उल्लास से भरे मिलाप होते थे. कृष्ण सात साल के थे और राधे 12 की. उनके साथ उन्हीं की उम्र के बच्चों की एक बड़ी टोली रहा करती थी.

वृंदावन में होली का त्योहार

वृंदावन में होली का त्योहार आया. इस रंगीन माहौल में, जब हर चीज अपने चरम पर थी, पूर्णिमा की एक विशेष शाम को लडक़े और लड़कियों की ये टोलियां यमुना नदी के किनारे इकट्ठी हुईं. नई जगह के इस माहौल की वजह से कई पुरानी परंपराएं टूट गईं. पहली बार ये छोटे लडक़े व लड़कियां नहाने के लिए नदी पर एक साथ पहुंचे. पहले तो इन टोलियों ने खेलना शुरू किया. इसके बाद उनका एक-दूसरे पर पानी उछालने और बालू व मिट्टी फेंकने का खेल शुरू हुआ. इस बीच वे एक-दूसरे को देखकर चिढ़ाने भी लगे. थोड़ी देर बाद जब इस खेल का जोश बढ़ता गया, तो बच्चों ने मिलकर नाचना शुरू किया. फिर हर्ष व उल्लास के अपने जुनून में वे नाचते गए और नाचते ही गए.

दिव्य आनंद की अवस्था

कुछ देर बाद थकान होने पर वे धीरे-धीरे एक-एक करके गिरने लगे. जब कृष्ण ने अपने इन साथियों को इस तरह थककर गिरते देखा, तो उन्होंने अपने कमरबंद से बांसुरी निकाली और मंत्रमुग्ध करने वाली एक धुन बजानी शुरू कर दी. कृष्ण की बांसुरी की यह धुन अत्यंत मनमोहक थी. इसे सुनकर सभी उठ खड़े हुए और वे फिर सभी मस्ती में झूमते गए और झूमते गए. वे इस धुन में नाचते-नाचते इतने मगन हो गए कि वे अपने-आप ही कृष्ण के चारों ओर जमा हो गए. नाच का यह दौर लगभग आधी रात तक यूं ही चलता रहा. यह पहली रास लीला थी, जिसमें उल्लासित लोगों की टोली ने एक साथ नाच-गाकर दिव्य आनंद की अवस्था को पाया था.

कृष्ण के प्रतिरूप शालिग्राम

जब यह रास लीला शुरु हुई, तो भगवान शिव पहाड़ों में ध्यान मग्न थे. कृष्ण हमेशा से भगवान शिव के भक्त रहे हैं. ऐसा माना जाता है कि कृष्ण वाकई में शालिग्राम से पैदा हुए थे. शालिग्राम एक अंडाकार काले रंग का चिकना चमकीला पत्थर होता है, जिसकी भारत में भगवान के रूप में पूजा होती है. यह यमुना नदी के किनारों पर मिलता है. हालांकि नेपाल से निकलने वाली कुछ और नदियों में ऐसे शालिग्राम पाए जाते थे. उनमें से अधिकांश नदियां अब लुप्त हो चुकी हैं. माना जाता है कि इन्हीं नदियों के जरिए शालिग्राम यमुना तक पहुंचे. ये शालिग्राम महज पत्थर नहीं हैं, ये एक खास तरीके से बनते हैं. इनके अंदर एक खास प्रक्रिया होती है, जिसकी वजह से इनमें अपना ही एक स्पंदन होता है. दंत कथा के अनुसार, कृष्ण इन्हीं शालिग्राम से निकले हैं और यही वजह है कि उनका रंग नीलापन लिए सांवला है. हर सुबह और शाम कृष्ण महादेव के मंदिर जाया करते थे. जहां तक मुमकिन हुआ, यह सिलसिला जीवनपर्यंत जारी रहा.

ध्यानमग्न शिवजी को माननी पड़ी शर्त

शिव ध्यान में मग्न थे और अचानक उन्हें पता चला कि जो आनंद उन्हें ध्यान में मिल रहा है, रास में लीन बच्चे नाच कर उसी आनंद का पान कर रहे हैं. वह देखकर हैरान थे कि छोटी उम्र का उनका वह भक्त बांस के छोटे टुकड़े की मोहक धुन पर सभी को नचाकर परम आनंद में डुबो रहा था. अब शिव से रहा नहीं गया. वह रास देखना चाहते थे. वह तुरंत उठे और सीधे यमुना तट की ओर चल दिए. वह यमुना को पार कर देखना चाह रहे थे कि वहां क्या हो रहा है. लेकिन उनके रास्ते में ही नदी की देवी वृनदेवी खड़ी हो गई. देवी ने उनसे कहा, ‘आप वहां नहीं जा सकते हैं.’ इस पर शिव आश्चर्यचकित रह गए. इस पर हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘क्या मैं वहां नहीं जा सकता?’ देवी ने कहा, ‘नहीं, क्योंकि यह कृष्ण का रास है. यहां कोई पुरुष नहीं जा सकता. अगर आपको वहां जाना है, तो आपको स्त्री के रूप में आना होगा.’ स्थिति वाकई विचित्र थी. शिव को पौरुष का प्रतीक माना जाता है – उनका प्रतीक लिंग और बाकी सब चीजों के होने की भी यही वजह है. ये प्रतीक उनकी पौरुषता के साक्षात प्रमाण हैं.

स्त्री वेश में शिवजी पहुंचे रासलीला

अब ऐसे में उनके सामने बड़ी दुविधा थी कि वह स्त्री के वेश में कैसे आएं. वहीं दूसरी ओर रास अपने चरम पर था. वह वहां जाना भी चाहते थे. शिव ने आस-पास देखा, कोई नहीं देख रहा था. उन्होंने कहा, ‘ठीक है, तुम मुझे गोपियों वाले वस्त्र दे दो.’ तब वनदेवी ने उनके सामने गोपी वाले वस्त्र पेश कर दिए. शिव ने उन्हें पहना और नदी पार करके चले गए. यह रास में शामिल रासलीला शिवजी होने की उनकी बेताबी ही थी.तो शिव को भी रास लीला में शामिल होने के लिए स्त्री बनना पड़ा. प्रेम, खुशी, उल्लास और आनंद का यह दिव्य नृत्य यूं ही चलता रहा.

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About the Author: स्मिता
स्मिता धर्म-अध्यात्म, संस्कृति-साहित्य, और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर शोधपरक और प्रभावशाली पत्रकारिता में एक विशिष्ट नाम हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका लंबा अनुभव समसामयिक और जटिल विषयों को सरल और नए दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत करने में उनकी दक्षता को उजागर करता है। धर्म और आध्यात्मिकता के साथ-साथ भारतीय संस्कृति और साहित्य के विविध पहलुओं को समझने और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने में उन्होंने विशेषज्ञता हासिल की है। स्वास्थ्य, जीवनशैली, और समाज से जुड़े मुद्दों पर उनके लेख सटीक और उपयोगी जानकारी प्रदान करते हैं। उनकी लेखनी गहराई से शोध पर आधारित होती है और पाठकों से सहजता से जुड़ने का अनोखा कौशल रखती है।
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