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बंगला बिका, चंदा हुआ तब मिला पदक
Authored By: विशेष खेल संवाददाता, गलगोटियाज टाइम्स
Published On: Thursday, July 25, 2024
Updated On: Thursday, July 25, 2024
आजाद भारत को ओलंपिक में पहला व्यक्तिगत पदक दिलाने वाले पहलवान खशाबा जाधव की राह बहुत आसान नहीं थी। बमुश्किल वह हेलसिंकी पहुंचे थे जहां इतिहास रचा।
पेरिस ओलंपिक (Paris Olympics) आरंभ हो रहे हैं। 2020 टोक्यो ओलंपिक में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला भारत इस बार इतिहास रचने के इरादे से मैदान में उतरेगा। करीब सवा सौ साल की अपनी ओलंपिक यात्रा में भारत ने टोक्यो में ही सबसे अधिक पदक जीते और नीरज चोपड़ा ने पहली बार ट्रैक एंड फील्ड में देश को स्वर्ण पदक दिलाया। मिल्खा सिंह और उड़नपरी पीटी ऊषा की नजदीकी अंतर से ओलंपिक मेडल से दूर रहने की कहानियां सुनते रहे देश के लिए अब ओलंपिक आस जगाते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं इस आस को मजबूत करने वाले महान खिलाड़ी को किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ा था। आइए हम बताते हैं। यह महान खिलाड़ी थे खशाबा जाधव। छोटी किंतु सुगठित काठी के स्वामी खशाबा ने ही भारत के लिए असल में पहला व्यक्तिगत ओलंपिक पदक जीता था, 1952 हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती का कांस्य पदक। हालांकि वर्ष 1900 में नार्मन प्रिचर्ड ने भारतीय खेमे से खेलते हुए दो पदक जीते थे, लेकिन तब न तो भारत एक आजाद देश के तौर पर ओलंपिक में भाग ले रहा था और न ही आधिकारिक दल भेजा गया था।
खैर, बात करते हैं खशाबा की। उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना कठिन था कि वह ओलंपिक जैसी शीर्ष प्रतियोगिता में पदक भी जीत सकते हैं, लेकिन एक कुशल पहलवान थे। दंगल फिल्म में हम लोगों ने गीता और महावीर फोगाट की कहानी तो बहुत बाद में जानी-देखी है, इससे दशकों पहले ही खशाबा और उनके पिता इसी तरह का ‘दंगल’ सफलता से आयोजित कर चुके थे। महाराष्ट्र की कराड़ तहसील के गोलेश्वर गांव में 1926 में जन्मे खशाबा के पिता को पहलवानी का शौक था और वह शाम को घर आने के बाद अपने बेटे को भी इस खेल के गुर सिखाते थे। बस यहीं से खशाबा की ओलंपिक यात्रा आरंभ हुई जो देश के लिए पहले आधिकारिक ओलंपिक पदक के रूप में परिणिति तक पहुंचीं। हालांकि पिता के दिए आरंभिक प्रशिक्षण को बाद में अंग्रेज कोच रीच गार्डनर ने पेशेवर अंदाज से मजबूत किया। रीच ने खशाबा को लंदन ओलंपिक में खेलते देखा और प्रभावित हुए थे।
किसान परिवार में जन्मे खशाबा के लिए हालांकि यह यात्रा आसान नहीं रही। तब हाकी के अलावा न तो भारत में खेलों को लेकर इतना जोश था और न ही पैसा। नतीजा, खशाबा ने जिस हेलसिंकी ओलंपिक में पदक जीता, वहां जाने के लिए भी उन्हें न जाने कितने जतन करने पड़े। 1952 में पदक जीतने से पहले खशाबा 1948 में लंदन ओलंपिक गए थे। तब कोल्हापुर के महाराज ने उनकी यात्रा का खर्च उठाया था, लेकिन खशाबा को कोई सफलता नहीं मिली थी। इस कारण हेलसिंकी ओलंपिक के लिए कोई इस पहलवान पर दांव खेलने को राजी ही न था।
खशाबा ने सरकार से मदद मांगी, लेकिन उसने कहा कि खेल खत्म होने के बाद मिलिए। तब प्रोफेसर दाभोलकर ने बंगला गिरवी रखकर खशाबा के लिए धन जुटाया, लेकिन वह भी कम ही रहा। चाहिए थे 12,000, मिले थे 4,000। तब इस पहलवान ने रसीद छापी और एक-एक रुपये चंदा जमा किया। एक सहकारी बैंक से कर्ज भी लिया। तब हेलसिंकी की राह मिली और कांस्य पदक के रूप में भारत के लिए ओलंपिक का सुनहरा पड़ाव बनी। खशाबा हालांकि अपना स्टारडम लंबा कायम नहीं रख सके। शायद तब व्यक्तिगत सफलताओं को बहुत महत्व नहीं मिलता था. सो वह भी गुमनामी में खो से गए। यहां तक कि उन्हें पद्म पुरस्कार तक नहीं मिला और अर्जुन पुरस्कार भी मरणोपरांत मिला। यह खशाबा की ही देन है कि उनके ओलंपिक पदक के बाद ही पुलिस में खेल कोटे से भर्ती आरंभ हुई।