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भाषा को लेकर शिक्षा नीति और सरकारों में ऐसे हो रही है सियासी खींचतान
भाषा को लेकर शिक्षा नीति और सरकारों में ऐसे हो रही है सियासी खींचतान
Authored By: सतीश झा
Published On: Wednesday, March 12, 2025
Updated On: Wednesday, March 12, 2025
भाषा के मुद्दे पर एक बार फिर तमिलनाडु सरकार और केंद्र सरकार के बीच सियासी बवाल उठ खड़ा हुआ है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने सीधेतौर पर केंद्र सरकार पर हमला किया. नई शिक्षा नीति को लेकर अब सियासी बयानबाजी का दौर बढ़ता हुआ दिख रहा है.
Authored By: सतीश झा
Updated On: Wednesday, March 12, 2025
Language policy in education: भारत में भाषा को लेकर शिक्षा नीति हमेशा से राजनीतिक बहस और टकराव का केंद्र रही है. हाल ही में, नई शिक्षा नीति (NEP) और विभिन्न राज्यों में स्थानीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की मांग ने इस मुद्दे को और अधिक गरमा दिया है. केंद्र सरकार द्वारा हिंदी और भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने की पहल के बीच, कई राज्य सरकारें इसे राजनीतिक हस्तक्षेप के रूप में देख रही हैं.
NEP बिल्कुल स्पष्ट है, इसे अनावश्यक विवाद का विषय बनाना उचित नहीं
केंद्रीय मंत्री जुएल ओराम ने संसद में नई शिक्षा नीति (NEP) के तहत त्रिभाषा नीति पर हो रहे हंगामे पर कहा, “कांग्रेस जब पहली बार सत्ता में आई थी, तब हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया गया था. इसके बावजूद, NEP में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई भी अपनी मातृभाषा में पढ़ाई और काम कर सकता है, लेकिन हिंदी को भी कुछ प्राथमिकता दी जाए – बस इतना ही कहा गया है.” उन्होंने आगे कहा कि यह पूरी तरह व्यक्तिगत पसंद पर निर्भर करता है कि कौन किस भाषा में पढ़ेगा और काम करेगा. NEP बिल्कुल स्पष्ट है, इसे अनावश्यक विवाद का विषय बनाना उचित नहीं है.”
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन की हिंदी हटाने की मांग, संविधान में क्या कहता है प्रावधान
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने सरकारी दफ्तरों से हिंदी को हटाकर तमिल लागू करने की वकालत की है. उन्होंने तर्क दिया कि हिंदी अन्य भाषाओं के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकती है. हालांकि, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि राजभाषा हिंदी होगी और इसकी लिपि देवनागरी होगी. 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में लंबी बहस के बाद हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया था. दुनिया के अधिकांश देशों में उनकी अपनी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है, इसलिए भारत में भी यही होना चाहिए. संविधान के अनुच्छेद 351 में यह प्रावधान किया गया है कि हिंदी का विकास इस तरह किया जाए कि वह भारत की सांस्कृतिक एकता की अभिव्यक्ति बन सके. हालांकि, भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है. हिंदी और अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है. संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है.
राष्ट्रीय बनाम क्षेत्रीय पहचान की बहस
भाषा को लेकर यह खींचतान राष्ट्रीय पहचान और क्षेत्रीय संस्कृति के बीच संतुलन बनाए रखने की चुनौती भी पेश कर रही है. केंद्र सरकार का मानना है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी, जबकि क्षेत्रीय सरकारों का कहना है कि स्थानीय भाषाओं का संरक्षण जरूरी है.
BJD सांसद सस्मित पात्रा ने संसद में नई शिक्षा नीति (NEP) के तहत त्रिभाषा नीति को लेकर हो रहे हंगामे पर कहा, “शिक्षा एक बेहद संवेदनशील विषय है. इस पर हंगामा करने के बजाय, शिक्षा मंत्रालय और उन राज्यों के बीच संवाद और चर्चा होनी चाहिए, जिन्हें इससे आपत्ति है.” उन्होंने कहा कि कुछ राज्यों को त्रिभाषा नीति से समस्या है, ऐसे में उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों और सरकार को मिलकर समाधान निकालना चाहिए. यदि कोई गलतफहमी है, तो उसे स्पष्ट किया जाना जरूरी है.
हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं का मुद्दा
केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति (NEP 2020) में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य करने की सिफारिश की है. कई राज्यों, विशेषकर दक्षिण भारत, पश्चिम बंगाल और पंजाब में, हिंदी को अनिवार्य बनाने की किसी भी योजना का विरोध किया जा रहा है. तमिलनाडु सरकार ने दोहराया है कि वह अपने राज्य में त्रिभाषा नीति लागू नहीं होने देगी और तमिल व अंग्रेज़ी पर ही जोर देगी. पश्चिम बंगाल में भी बंगाली भाषा को प्राथमिकता देने की मांग उठी है, जबकि हिंदीभाषी छात्रों की संख्या वहां भी लगातार बढ़ रही है.
कांग्रेस सांसद कार्ति चिदंबरम ने कहा, “तमिलनाडु का रुख बिल्कुल स्पष्ट है. हम दो भाषाओं – तमिल और अंग्रेजी – से ही भरपूर लाभ प्राप्त करते हैं. अंग्रेजी हमें वाणिज्य और विज्ञान की दुनिया से जोड़ती है, जबकि तमिल हमारी संस्कृति और पहचान को संरक्षित रखती है. यदि कोई तीसरी भाषा सीखना चाहता है, तो वह अपनी इच्छा के अनुसार सीख सकता है, लेकिन इसे अनिवार्य बनाने की कोई जरूरत नहीं है.”
सरकारों की अलग-अलग नीतियां
उत्तर भारत के कई राज्य, जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार, हिंदी को शिक्षा और प्रशासन में अधिक स्थान देने के लिए नई योजनाएं लागू कर रहे हैं. दक्षिणी राज्य कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में हिंदी को थोपने का आरोप लगाकर स्थानीय भाषाओं में शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है. पूर्वोत्तर राज्यों में भी स्थानीय भाषाओं के संरक्षण की मांग बढ़ी है, जहां असम और मणिपुर में शिक्षा में स्थानीय भाषाओं के महत्व पर बहस चल रही है.