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Bomb Blast Survivor Becomes International Motivational Speaker : मौत को हराकर मालविका अय्यर ने बनाया अपना मुकाम
Authored By: अंशु सिंह
Published On: Wednesday, October 8, 2025
Last Updated On: Wednesday, October 8, 2025
नारी शक्ति पुरस्कार से नवाजी जा चुकीं मालविका अय्यर (Malvika Iyer) की जिंदगी बचपन में ही एक बम विस्फोट के कारण एकदम से बदल गई. हादसे में उन्होंने दोनों हाथ हमेशा के लिए खो दिए. दोनों पांवों की चोटें भी इतनी गंभीर थीं कि वे दोबारा उन पर खड़ी न हो सकीं. व्हीलचेयर साथी बन गया. बावजूद इसके, मालविका ने कभी हार नहीं मानी. आज वे डिसेबिलिटी राइट्स एक्टिविस्ट, टेडएक्स स्पीकर, कॉरपोरेट ट्रेनर एवं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मोटिवेशनल स्पीकर (Motivational Speaker) हैं. साल 2020 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उन्हें अपने सोशल मीडिया को संभालने के लिए चुना जा चुका है. मालविका दिव्यांगता को अभिशाप नहीं मानती, बल्कि उनके अधिकारों की रक्षा को अपना सामाजिक लक्ष्य मानती हैं. इनके जीवन का एक सुंदर मंत्र है- बी अनस्टॉपेबल.
Authored By: अंशु सिंह
Last Updated On: Wednesday, October 8, 2025
Bomb Blast Survivor Motivational: 13 साल की कच्ची उम्र में बच्चों का वक्त खेलने-कूदने और सपनों में रंग भरने में गुजरता है. मालविका की जिंदगी भी कुछ वैसे ही गुजर रही थी. वे राजस्थान के बीकानेर में अपने पिता के साथ रहती थीं. टॉमबॉय जैसी होने के कारण तैराकी एवं स्केटिंग जैसे गेम्स खूब पसंद थे. नृत्य का भी शौक था. कथक सीख रही थीं. लेकिन वह 26 मई 2002 का दिन था, जब उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई. मालविका के घर के निकट ग्रेनेड विस्फोट हुआ, जिसमें उन्होंने अपने दोनों हाथ हमेशा के लिए खो दिए. दोनों पांव बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए. नसें फट गईं. डॉक्टरों को यकीन नहीं था कि वे बच पाएंगी. कई सर्जरी हुई. पैर तो बच गए. मगर, शरीर पूरी तरह से विकृत हो गया. लेकिन मालविका ने हार नहीं मानी. कहती हैं, ‘मेरी एक सोच रही है – ‘लुक हाऊ फार आई हैव गॉन.‘ मैं खुद को याद दिलाती रहती हूं कि बम विस्फोट जैसे बड़े हादसे में गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद जिंदगी ने मुझे क्या कुछ नहीं दिया. आज मेरी जो पहचान है. समाज ने जो सम्मान दिया है, उसने मेरी जिम्मेदारी बढ़ा दी है. मैं अगर अपनी हिम्मत और परिवार के सहयोग से आगे बढ़ सकती हूं, तो कोई और क्यों नहीं.
हादसे के बाद टूटे सपने, लेकिन नहीं हारी हिम्मत
हादसे के बाद मालविका करीब दो साल बिस्तर पर थीं. पूरी दुनिया के दरवाजे मानो बंद हो गए थे. डांसर बनने का सपना बिखर चुका था. कथक सिर्फ यादों में रह गया था. जिस आर्ट एवं क्राफ्ट का जुनून था, उसका साथ भी छूट चुका था. हादसे के बाद पढ़ाई पूरी करना भी एक चुनौती थी. लेकिन जिंदगी दोबारा से शुरू करनी थी, सो महज तीन महीने में दसवीं की परीक्षा की तैयारी की. बताती हैं, ‘मुझे जैव-विद्युतीय हाथ लगाए गए थे, जिसकी मदद से लिखने का अभ्यास किया. आखिरकार, मेहनत रंग लाई और मैं स्टेट रैंक प्राप्त करने में सफल रही. मुझे करीब 97 फीसदी अंक मिले थे. मैथ्स एवं साइंस में तो 100 फीसद अंक आए थे. मैं एक सेलिब्रिटी बन चुकी थी. अखबारों में मेरी उपलब्धि प्रकाशित हुई. मशहूर हस्तियों से मिलने का मौका मिला. विजडम पत्रिका ने उत्कृष्ट छात्रा का पुरस्कार दिया. तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने राष्ट्रपति भवन में सम्मानित किया. उनसे मुलाकात के बाद लगा कि जिंदगी कितनी कीमती है. उनसे जीने की प्रेरणा मिली.
कॉलेज के दिनों में हीन भावना से रहीं परेशान
मालविका को हर मोड़ पर चुनौतियों का सामना करना पड़ा. शुरुआत में लोग उन्हें घूरा करते थे. अजीब सी लाचारी झलकती थी उनकी आंखों में. माता-पिता से सवाल करते थे. असंवेदनशील टिप्पणियां सुनने को मिलती थीं. समाज की इस चिंता के अलावा खुद से खुद की लड़ाई भी चलती थी. वे कहती हैं, ‘मुझे याद है वह दिन जब दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में दाखिला हुआ था. मैं काफी हीन भावना से ग्रस्त होती थी. किसी से हैंडशेक यानी हाथ नहीं मिलाती थी. मन में अजीब सा डर रहता था कि सबको मेरे बारे में पता लग जाएगा कि मेरे हाथ नहीं हैं. मैं कृत्रिम हाथों का प्रयोग करती थी. कॉलेज में मूवमेंट बहुत कम हो पाने से मायूसी होती थी कि सबकी तरह नहीं हूं.’ मालविका के साथ 13 साल की उम्र में जो हुआ, उससे अब तक लड़ रही हैं. बढ़ती उम्र के साथ तमाम प्रकार की शारीरिक समस्याएं आ रही हैं. पांव सामान्य नहीं है. अर्थराइटिस, नर्व पैरालिसिस आदि समय-समय पर मुश्किलें पैदा करते रहते हैं. व्हीलचेयर की जिंदगी आसान नहीं. फिर भी मन को मजबूत बनाए रखती हैं. हार नहीं मानतीं. खुद को एक मंत्र दे रखा है-‘बी अनस्टॉपेबल’.
मोटिवेशनल स्पीकर बनने की राह
दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क से समाजसेवा में मास्टर्स करने के उपरांत मालविका ने मद्रास स्कूल ऑफ सोशल वर्क से एमफिल और पीएचडी किया. फील्ड ट्रेनिंग एवं रिसर्च के दौरान दिव्यांग बच्चों के साथ काम करने का अवसर मिला. उन्हें एहसास हुआ कि आखिर वे दुनिया से अपनी असलियत क्यों छिपाना चाहती हैं? क्यों डरती हैं कि लोग क्या कहेंगे? दिव्यांग होना कोई गलती तो नहीं है. मालविका कहती हैं, ‘बच्चों से प्रेरणा मिली और मैंने तय किया कि मैं अब कुछ छिपाऊंगी नहीं. जो हूं, उसे स्वीकार करूंगी. अपनी कहानी सबके सामने रखूंगी. खुशकिस्मती से आइआइटी मद्रास के एक टेडएक्स इवेंट में बोलने का निमंत्रण लिया. वहां मैंने अपनी कहानी सुनाई. मुझे स्टैंडिंग ओवेशन मिला. मेरा सच दुनिया के सामने था. जब लोगों ने उसका जश्न मनाया, तब मैंने भी जिंदगी का जश्न मनाना शुरू किया. आहिस्ता-आहिस्ता मंच मिलते चले गए. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम, वर्ल्ड बैंक, संयुक्त राष्ट्र, माइक्रोसॉफ्ट, आइबीएम जैसी संस्थाओं ने मुझे अपनी बात रखने का अवसर दिया. इस तरह, मैं एक मोटिवेशनल स्पीकर बन गई. आज पब्लिक स्पीकिंग के करीब-करीब 12 साल हो गए हैं. वैसे, तो हर स्पीच अपने आपमें अलग और खास रही है. लेकिन उस क्षण को भुला नहीं पाती हूं, जब न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ वूमन 61 के कार्यक्रम में मोटिवेशनल स्पीच देने के बाद सभी ने खड़े होकर अभिवादन किया.
दिव्यांगों की बनीं रोल मॉडल
मालविका ने दिव्यांग लोगों के प्रति दृष्टिकोण संबंधी बाधाओं पर अपनी डॉक्टरेट थीसिस की है. वे समझना चाहती थीं कि दिव्यांगों के प्रति युवाओं का क्या दृष्टिकोण है. शोध से उन्हें पता चला कि दिव्यांगों के प्रति भेदभाव कम उम्र से ही शुरू हो जाता है. वे कहती हैं, ‘बदलते दौर में निश्चित रूप से एक परिवर्तन भी आया है. समाज जागरूक हो रहा है. लोग जानने लगे हैं कि दिव्यांगों की जरूरतें क्या हैं? उन्हें बेचारा समझने की मानसिकता बदल रही है. अब कोई ‘बेचारी लड़की’ जैसे संबोधन नहीं कहता. रोल मॉडल्स की बात करूं, तो पहले डिसेबल्ड लोगों के सामने कोई प्रेरक शख्सियत नहीं होता था. खुद मेरे सामने ऐसा कोई रोल मॉडल नहीं था. कोई मंच नहीं होता था, जहां हम अपने विचार साझा कर सकें. आज मंच से लेकर रोल मॉडल सभी हैं. हां, एक्सेसिबिलिटी की समस्या है. लेकिन मेरा मानना है कि मुख्यधारा में दिव्यांगों का प्रतिनिधित्व जितना अधिक बढ़ेगा, उतना ही हमारा समाज समावेशी बनेगा. नीति निर्माण की प्रक्रिया बदलेगी.
मां रही हैं प्रेरणा
मालविका का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन में मां जैसा सकारात्मक इंसान नहीं देखा. 22 साल की उम्र में उन्होंने मालविका को जन्म दिया था. बताती हैं, ‘मेरी एक और बड़ी बहन भी हैं. लेकिन हादसे के बाद भी मां ने हम दोनों की एक समान परवरिश की. कभी भेदभाव नहीं किया. न दया दिखाई. निराशा में डूबने की जगह मुझे आगे बढ़ाने में लगी रहीं. हमेशा यही सीख दी कि जो हुआ है, उसे स्वीकार करो और आगे बढ़ो. वे न सिर्फ सहारा बनीं, बल्कि परछाईं की तरह हमेशा साथ रहीं. मेरी जिंदगी और व्यक्तित्व पर उनका गहरा प्रभाव रहा है. पिता जी ने भी हमेशा साथ दिया. इलाज पर जितने भी खर्च आए, उन्होंने उफ्फ तक नहीं की. वे हमारे बैकबोन बने रहे. शादी के बाद पति ने भी पूरा सहयोग दिया. वे मेरी शक्ति एवं मजबूत स्तंभ रहे हैं. मैं नौ साल उनके साथ अमेरिका में रही. कुछ समय पहले ही भारत लौटना हुआ है.
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