Teens Losing Their Childhood: सोशल मीडिया, वीडियो गेम्स की गिरफ्त में बचपन, छोटी उम्र में बढ़ता सयानापन

Authored By: अंशु सिंह

Published On: Monday, October 13, 2025

Updated On: Monday, October 13, 2025

Teens Losing Their Childhood: सोशल मीडिया और वीडियो गेम्स के कारण किशोरों का बचपन कम होता जा रहा है, छोटी उम्र में बढ़ रहा सयानापन.

बच्चों का बचपना गुम हो रहा. किशोर उम्र लड़के एवं लड़कियां अपने अपीयरेंस, एक्सप्रेशन, लुक को लेकर इस कदर कांशस रहने लगे हैं कि कम उम्र में ही सयानापन झलकने लगा है. खेलने-कूदने, खाने-पीने की उम्र में डाइट कंट्रोल कर रहे हैं. ब्यूटी सैलोन जा रहे हैं. खुलकर नशा कर रहे हैं. इंटरनेट ने तो बच्चों को समय से पूर्व सयाना बना दिया है. साइबरबुलिंग जैसी घटनाएं उनके व्यक्तित्व पर गहरा असर डाल रही हैं.

Authored By: अंशु सिंह

Updated On: Monday, October 13, 2025

Teens Losing Their Childhood: किशोर उम्र बच्चे साइबर क्राइम (cyber crime) के शिकार होने लगे हैं. साइबरबुलिंग (cyberbullying) आज दुनिया भर के युवाओं के लिए सबसे प्रचलित ऑनलाइन खतरों में से एक बन चुका है. इसमें डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल दूसरों को परेशान करने, धमकाने या हेरफेर करने के लिए किया जाता है. यह उन प्रमुख खतरों में से एक है जिसका सामना बच्चे और किशोर सोशल मीडिया साइट्स और वीडियो गेम्स के जरिए लगातार करते हैं. यह युवाओं को हर बार प्रभावित कर सकता है जब वे अभद्र भाषा, हिंसक सामग्री के संपर्क में आते हैं. लगभग 20 प्रतिशत बच्चे सोशल नेटवर्क और 8 प्रतिशत वीडियो गेम्स चैट रूम के जरिए बदमाशी का सामना करते हैं. ओटीटी पर हालिया रिलीज हुई सीरीज- ‘गेम : यू नेवर प्ले अलोन’ में इस विषय को गंभीरता से उठाया गया है. वेब सीरीज में दिखाया गया है कि कैसे एक किशोर लड़की की सोशल मीडिया के जरिये हुई दोस्ती उसकी जिन्दगी खराब कर देती है. उसे शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है. इससे पूर्व अभिनेता अक्षय कुमार भी शिकायत कर चुके हैं कि कैसे एक ऑनलाइन गेम खेलते हुए उनकी बेटी से न्यूड फोटोज मांगी गई.

छोटी उम्र में आ रहा सयानापन ( Rise of early Adulthood )

दरअसल, छोटी उम्र में बच्चों की मासूमियत गुम हो रही है. वे परिपक्व दिखने की कोशिश में लगे होते हैं. 12 वर्ष की हर्षिता को ही लें. वे अपनी ड्रेस, फुटवियर और मेकअप आदि का चयन खुद ही करती हैं. मां या परिवार की किसी सदस्य का हस्तक्षेप उन्हें बिल्कुल गंवारा नहीं. कहीं घूमने जाना हो, तो बिना होठों पर लिप ग्लॉस लगाए नहीं निकलतीं. कभी-कभी लिपस्टिक पर भी हाथ मार लेती हैं. मना करने पर बिफर पड़ती हैं. पैरेंट्स हैरान हैं कि उनकी बेटी को बड़े होने की इतनी जल्दी क्यों है? आज ये सिर्फ हर्षिता के पैरेंट्स की समस्या नहीं रही. हाल ही में हुए एक पोल में करीब दो-तिहाई पैरेंट्स का मत रहा कि उनके किशोर उम्र बच्चे अपने बाह्य अपीयरेंस को लेकर काफी ज्यादा कांशस रहने लगे हैं. वे सौंदर्य संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं. ब्यूटी सैलोन जा रहे हैं. बात-व्यवहार का तरीका बदल गया है. इंटरनेट पर हर प्रकार का व्यस्क कंटेंट देखने के कारण समय से पहले कई चीजों की जानकारी मिल जा रही. इसलिए उन्हें आउटडोर एक्टिविटी नहीं, वीडियो व इंटरनेट गेम्स अधिक लुभा रहे. लोगों से मिलना-जुलना, सामाजिक गतिविधियों रुचि न के बरारबर रह गई है. रिश्तों की अहमियत तो बहुत दूर की बात है. अमेरिकी साइकोलॉजिकल एसोसिएशन का एक अध्ययन कहता है कि इंटरनेट गेमिंग सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों में एक प्रकार की पलायनवादी प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है. वे अपनी गलतियों या खराब मूड से छुटकारा पाने के लिए गेमिंग का सहारा तो लेते हैं, लेकिन इससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है. गेम्स खेलने के दौरान वे काफी अधीर, बेचैन एवं चिड़चिड़े हो जाते हैं. एक समय के बाद डिप्रेशन, अकेलेपन की समस्या सताने लगती है.

ब्यूटी एवं फैशन इंफ्लुएंसर्स बने रोल मॉडल

मनोचिकित्सक रेणू गोयल का मानना है कि बच्चों की सोच में आ रहे परिवर्तन के लिए उपभोक्ता बाजार एवं सोशल मीडिया काफी हद तक जिम्मेदार हैं. वे इंस्टाग्राम, फेसबुक, यूट्यूब पर आने वाले सौंदर्य संबंधी वीडियोज, शॉर्ट्स, रील्स को फॉलो करते हैं. ब्यूटी एवं मेकअप इंफ्ल्युएंसर्स रोल मॉडल बन चुके हैं, जिनसे आठ और नौ वर्ष की लड़कियां प्रभावित हो रहीं. कॉस्मेटिक निर्माता कंपनियां 8 से 12 वर्ष की लड़कियों को लुभाने के लिए समय-समय पर नेल एवं लिप प्रोडक्ट्स लॉन्च करती रहती हैं, यानी मार्केट में भी सब आसानी से उपलब्ध होता है.‘ असल में मीडिया में जिस प्रकार से एक आइडियल बॉडी एवं ब्यूटी का बखान किया जाता है, उसका किशोर उम्र बच्चों में गलत संदेश जाता है. वे खुद की तुलना टीवी, सोशल मीडिया, सिनेमा में दिखने वाली मॉडल्स एवं एक्टर्स से करने लगते हैं. वर्ष 2022 में किए गए एक अध्ययन पर ध्यान दें, तो 8 से 12 वर्ष आयु की करीब 57 फीसद लड़कियां अपने अपीयरेंस को लेकर स्व सचेत थीं, जबकि 13 से 17 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते यह दर 73 फीसदी पहुंच गई. मनोचिकित्सकों का कहना है कि अगर समय रहते बच्चों के व्यवहार में आ रहे इन बदलावों को न चेक किया गया, तो उसका उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है. यहां तक कि बच्चे खुद को नुकसान तक पहुंचा सकते हैं. इसलिए जरूरी है कि पैरेंट्स समय रहते हस्तक्षेप करें और बच्चों के आत्मविश्वास को मजबूत करें. बच्चों की मानसिकता में परिवर्तन लाने के लिए पैरेंट्स, स्कूल सभी को मिलकर ध्यान देना होगा.

दुबला दिखने की होड़

किशोरावस्था की दहलीज 13 वर्ष से घटकर 8-9 वर्ष हो गई है. हारमोनल बदलाव भी जल्दी शुरू हो जा रहे, जिसका असर उनके रिश्तों पर पड़ता है। उनमें स्थायित्व नहीं होता. सहनशक्ति कम होने से असफलता सहन नहीं होती. खुद को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है. देखा यह भी गया है कि जो किशोर जितने अधिक बॉडी कांशस होते हैं, वे निगेटिव बॉडी इमेज को ज्यादा गंभीरता से लेते हैं. इससे उनका खानपान तक प्रभावित होने लगता है. शरीर में जरूरी पोषक तत्वों की कमी होने लगती है. किशोरावस्था में इस प्रकार की समस्या से संघर्ष कर चुकीं इंटीरियर डिजाइनर मेघना बख्शी बताती हैं, ‘मैं नौवीं कक्षा में स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ जेईई की तैयारी कर रही थी. पढ़ाई का दबाव तो बढ़ ही गया था. मेरा वजन भी बढ़ने लगा था. क्लास के साथी कमेंट्स करने लगे कि मोटी हो गई हो. यह सुनकर इतना धक्का लगा कि खाना-पीना कम कर दिया. सिर्फ जूस और हल्का नाश्ता करती. खूब एक्सरसाइज करती. रस्सियां कूदती. वजन तो कम हो गया, लेकिन कमजोरी महसूस होने लगी. आखिरकर काउंसलर की सलाह से सब सामान्य हो पाया.‘ दरअसल, किशोर उम्र में पीयर प्रेशर इतना होता है कि कई बार अपना विवेक काम नहीं करता. वजन, लंबाई, शारीरिक बनावट आदि को लेकर बुली का सामना करने से आत्म सम्मान कमजोर पड़ जाता है.

आंतरिक सुंदरता पर जोर

विश्व स्वास्थ्य संगठन का हालिया रिपोर्ट इशारा करता है कि कैसे 15 से 25 वर्ष के बीच के बच्चों-युवाओं में आत्महत्या करने की दर बढ़ती जा रही है. अगर बच्चे खुश रहना, सुंदर दिखना और एक अर्थपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, तो उन्हें खुद से जुड़ना होगा. इसके लिए अपनी कमियों व विशेषताओं को पहचान कर आगे बढ़ना होगा. अपने अंतर्मन पर काम करना होगा। नैतिक मूल्यों को जानने का प्रयास करना होगा. वरिष्ठ मनोचिकित्सक गगनदीप कौर का कहना है कि किशोर उम्र बच्चों में आ रहे बदलाव बदलते समाज का प्रतिबिंब है. हमारा समाज खुद से कटकर, उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर बढ़ रहा है. ये ट्रेंड बन चुकी है कि जो दिखता है, वह बिकता है. बच्चे नहीं समझ पा रहे कि वे बाहर से कितना भी सुंदर लगने की कोशिश करें, मेकअप कर लें, अगर सोच अच्छी नहीं है, तो सब बेकार है. आप कैसे दिखते हैं, ये आपके विचारों पर निर्भर करता है. भारतीय संस्कृति में अंतरात्मा से जुड़ने की बात कही जाती है. लेकिन इस पर ध्यान देने की जगह सभी भौतिक वस्तुओं, जिम, डाइट करने के पीछे पड़े हैं. इसके जरिये ही खूबसूरत दिखने की कोशिश करते रहते हैं. परिणाम यह हो रहा कि बच्चे समय से पहले परिपक्व होने लगे हैं.

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About the Author: अंशु सिंह
अंशु सिंह पिछले बीस वर्षों से हिंदी पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं। उनका कार्यकाल देश के प्रमुख समाचार पत्र दैनिक जागरण और अन्य राष्ट्रीय समाचार माध्यमों में प्रेरणादायक लेखन और संपादकीय योगदान के लिए उल्लेखनीय है। उन्होंने शिक्षा एवं करियर, महिला सशक्तिकरण, सामाजिक मुद्दों, संस्कृति, प्रौद्योगिकी, यात्रा एवं पर्यटन, जीवनशैली और मनोरंजन जैसे विषयों पर कई प्रभावशाली लेख लिखे हैं। उनकी लेखनी में गहरी सामाजिक समझ और प्रगतिशील दृष्टिकोण की झलक मिलती है, जो पाठकों को न केवल जानकारी बल्कि प्रेरणा भी प्रदान करती है। उनके द्वारा लिखे गए सैकड़ों आलेख पाठकों के बीच गहरी छाप छोड़ चुके हैं।
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