नेताजी Subhas Chandra Bose के जोशीले विचार, देशभक्ति भरे Slogans, Quotes, जीवन यात्रा और आजाद हिंद फौज की कहानी
नेताजी Subhas Chandra Bose के जोशीले विचार, देशभक्ति भरे Slogans, Quotes, जीवन यात्रा और आजाद हिंद फौज की कहानी
Authored By: Ranjan Gupta
Published On: Tuesday, July 1, 2025
Updated On: Tuesday, July 1, 2025
Subhas chandra bose भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे नायक हैं जिनका नाम सुनते ही रगों में देशभक्ति का संचार हो जाता है. उनका अदम्य साहस, असाधारण नेतृत्व क्षमता और देश के प्रति अटूट समर्पण ने उन्हें इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया. भारत सरकार ने उनके सम्मान में 23 जनवरी को 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाना शुरू किया है. उनकी जयंती पूरे देश में बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है. Subhas Chandra Bose के Quotes और Slogans आज भी लोगों को खासकर युवाओं को प्रेरणा देती है. उनके कई Famous Quotes है जिसने समाज में क्रांति ला दी. तो आइए है इस लेख में हम पढ़ते हैं.
Authored By: Ranjan Gupta
Updated On: Tuesday, July 1, 2025
नेता जी सुभाष चंद्र बोस ना केवल एक क्रांतिकारी नेता थे, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की वह धधकती चिंगारी थे जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी. सुभाष चंद्र बोस का व्यक्तित्व प्रेरणा, साहस और नेतृत्व का प्रतीक था. जहां एक ओर महात्मा गांधी ने शांति और अहिंसा की राह चुनी, वहीं बोस ने माना कि स्वतंत्रता केवल याचना से नहीं, संघर्ष से मिलेगी. उनकी वाणी में जादू था, विचारों में क्रांति थी और संकल्प में लोहे जैसी दृढ़ता. उनकी जीवन यात्रा हमें यह सिखाती है कि जब इरादे बुलंद हों और लक्ष्य स्पष्ट, तो इतिहास भी रास्ता बदल देता है. नेताजी की कहानी केवल अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि आज भी वह युवाओं के लिए एक आदर्श, एक प्रेरणा और एक क्रांतिकारी पुकार है.
सुभाष चंद्र बोस के प्रेरक कोट्स (Subhas chandra bose Famous motivational quotes)

“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा!” (यह उनका सबसे प्रसिद्ध नारा भी है, लेकिन यह एक गहरा प्रेरक कथन भी है.)
“आज़ादी मिलती नहीं, ली जाती है.”
“याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है.”
“एक व्यक्ति एक विचार के लिए मर सकता है, लेकिन वह विचार, उसकी मृत्यु के बाद, एक हजार जीवन में फिर से अवतरित होगा.”
“भारत की नियति में विश्वास मत खोना. दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो भारत को गुलाम रख सके.”
“सफलता हमेशा असफलता के खंभे पर खड़ी होती है.”
“राष्ट्रवाद मानव जाति के उच्चतम आदर्शों, सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् से प्रेरित है.”
“अपने लक्ष्य के लिए अडिग रहो, चाहे कितनी भी बाधाएँ क्यों न आएं.”
“हमारा कर्तव्य है कि हम अपने जीवन का बलिदान दें, ताकि हमारे देश को आज़ादी मिले.”
“यदि तुम जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हो, तो तुममें कुछ भी करने का साहस होना चाहिए.”
“आज़ादी के लिए हमारी भूख हमें और अधिक शक्तिशाली बनाती है.”
“हमारा सबसे बड़ा हथियार हमारी एकता है.”
“जीवन में हर कदम पर संघर्ष है, लेकिन हमें कभी हार नहीं माननी चाहिए.”
“जो अपने देश से प्यार नहीं करता, वह कभी भी महान नहीं बन सकता.”
“हमें हमेशा अपने आदर्शों के लिए लड़ना चाहिए.”
सुभाष चंद्र बोस के जयंती पर बेस्ट स्लोगन (Subhas chandra bose best slogans)

“जय हिन्द!” (यह उनका दिया हुआ अभिवादन है और एक शक्तिशाली नारा बन गया है.)
“दिल्ली चलो!”
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा!”
“इंकलाब ज़िंदाबाद!” (हालांकि यह भगत सिंह से भी जुड़ा है, बोस के अनुयायी भी इसका इस्तेमाल करते थे.)
“जय भारत!”
“आज़ाद हिन्द ज़िंदाबाद!”
“आज़ादी हमारी जान है!”
“भारत माता की जय!”
“दुश्मन को भगाओ, देश को बचाओ!”
“उठो, जागो, और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो!”
“कदम-कदम बढ़ाए जा, ख़ुशी के गीत गाए जा, ये जिंदगी है क़ौम की, तू क़ौम पे लुटाए जा.” (यह आज़ाद हिंद फ़ौज का एक प्रसिद्ध गीत भी था.)
“आज़ादी के लिए लड़ो, आज़ादी के लिए मरो!”
“भारत हमारा, हम भारत के!”
“हमारा लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता!”
“करो या मरो!” (हालांकि यह महात्मा गांधी से भी जुड़ा है, आज़ाद हिंद फ़ौज ने भी इसे अपनाया था.)
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प्रारंभिक जीवन और शिक्षा (1897-1921)

सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा (अब ओडिशा) के कटक शहर में एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था. उनके पिता, जानकीनाथ बोस, एक प्रसिद्ध वकील और कटक नगर पालिका के अध्यक्ष थे, जबकि उनकी माता, प्रभावती देवी, एक धार्मिक महिला थीं. वे अपने माता-पिता की 14वीं संतान थे, जिनमें 6 बेटियां और 8 बेटे शामिल थे.
बचपन से ही सुभाष कुशाग्र बुद्धि के धनी थे. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कटक के प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल (अब स्टीवर्ट हाई स्कूल) से प्राप्त की. इसके बाद, उन्होंने रेवेंशॉ कॉलेजिएट स्कूल, कटक में पढ़ाई की, जहां उन्होंने अपनी मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की.
उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता (अब कोलकाता) चले गए. उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता में दाखिला लिया, जहां उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री प्राप्त की. इस दौरान, वे स्वामी विवेकानंद और राम कृष्ण परमहंस के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए. विवेकानंद के ‘उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए’ के मंत्र ने उनके जीवन को एक नई दिशा दी. वे राष्ट्रीयता और आध्यात्मिकता के संगम से प्रेरित हुए.
प्रेसीडेंसी कॉलेज में एक ब्रिटिश प्रोफेसर के खिलाफ छात्र विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के कारण उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था. इसके बाद उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कलकत्ता में दाखिला लिया और 1919 में दर्शनशास्त्र में बीए की डिग्री प्राप्त की.
उनके पिता चाहते थे कि सुभाष एक सिविल सेवक बनें. पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए, वे भारतीय सिविल सेवा (ICS) की परीक्षा की तैयारी के लिए इंग्लैंड चले गए. 1920 में उन्होंने यह परीक्षा चौथे स्थान पर रहकर उत्तीर्ण की, जो उस समय एक भारतीय के लिए एक असाधारण उपलब्धि थी. हालांकि, ब्रिटिश सरकार के अधीन काम करने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी. वे भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने के लिए प्रतिबद्ध थे और उनका मानना था कि स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना उनका सर्वोच्च कर्तव्य है. इस कारण उन्होंने 1921 में सिविल सेवा से इस्तीफा दे दिया. उनका यह निर्णय उनके परिवार और मित्रों के लिए चौंकाने वाला था, लेकिन यह उनके दृढ़ संकल्प और देश के प्रति समर्पण का प्रतीक था.
राजनीतिक जीवन की शुरुआत और गांधीजी से मतभेद (1921-1939)

भारत लौटने पर, सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के संपर्क में आए. गांधीजी ने उन्हें चित्तरंजन दास (सीआर दास) के साथ काम करने की सलाह दी, जिन्हें वे अपना राजनीतिक गुरु मानते थे. सीआर दास उस समय बंगाल में एक प्रमुख राष्ट्रवादी नेता थे और उन्होंने सुभाष को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया.
बोस ने शीघ्र ही कांग्रेस के भीतर अपनी पहचान बनाई. उन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और कई बार जेल गए. उन्होंने कलकत्ता नगर निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में भी कार्य किया और इस पद पर रहते हुए उन्होंने जन कल्याण के कई कार्य किए.
धीरे-धीरे, सुभाष और गांधीजी के बीच वैचारिक मतभेद उभरने लगे. जहां गांधीजी अहिंसक असहयोग और क्रमिक सुधारों में विश्वास रखते थे, वहीं बोस का मानना था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता की आवश्यकता है और इसके लिए अधिक आक्रामक और त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए. वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने के पक्षधर थे और उनका मानना था कि केवल राजनीतिक संघर्ष पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि सशस्त्र क्रांति भी आवश्यक हो सकती है.
1928 में, साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के साथ मिलकर ‘भारतीय स्वतंत्रता लीग’ की स्थापना की. 1930 में, उन्हें कलकत्ता का मेयर चुना गया. इस अवधि में, उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया और जेल में रखा गया. जेल में उनके स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी और उन्हें इलाज के लिए यूरोप जाने की अनुमति मिली.
यूरोप में रहते हुए, उन्होंने विभिन्न यूरोपीय नेताओं और बुद्धिजीवियों से मुलाकात की. उन्होंने मुसोलिनी, हिटलर और अन्य यूरोपीय नेताओं से भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया. उन्होंने यह भी देखा कि कैसे अधिनायकवादी शासन सैन्य शक्ति का उपयोग करके अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर रहे थे, जिसने उनके विचारों को प्रभावित किया. उन्होंने ‘द इंडियन स्ट्रगल’ नामक पुस्तक भी लिखी, जिसमें उन्होंने 1920 से 1934 तक के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का विश्लेषण किया.
1938 में, उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया. यह उनके राजनीतिक जीवन की एक बड़ी उपलब्धि थी. उन्होंने कांग्रेस को अधिक आक्रामक बनाने और पूर्ण स्वराज के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ठोस कदम उठाने का आह्वान किया. हालांकि, उनके और गांधीजी के बीच मतभेद और गहरे हो गए. 1939 में, उन्होंने गांधीजी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हराकर एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव जीता. यह गांधीजी के लिए एक बड़ा झटका था, और इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस के भीतर दरारें और चौड़ी हो गईं. गांधीजी के समर्थकों के साथ मतभेदों के चलते, सुभाष चंद्र बोस ने अप्रैल 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.
फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना और भारत से पलायन (1939-1941)

कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद, सुभाष चंद्र बोस ने 3 मई, 1939 को ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ नामक एक नई राजनीतिक पार्टी की स्थापना की. इस पार्टी का उद्देश्य कांग्रेस के भीतर वामपंथी तत्वों को एकजुट करना और भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाना था. उन्होंने देशव्यापी दौरे किए और जनता को ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया.
द्वितीय विश्व युद्ध के प्रकोप के साथ, बोस ने इसे ब्रिटिश साम्राज्य को कमजोर करने और भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने का एक अवसर माना. उनका मानना था कि ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है’ और उन्होंने एक्सिस शक्तियों (जर्मनी, इटली और जापान) से मदद लेने का फैसला किया.
ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नजरबंद कर दिया. हालांकि, 16 जनवरी, 1941 को वे भेष बदलकर कलकत्ता में अपने घर से भाग निकले. यह उनकी एक अविश्वसनीय और साहसिक योजना थी, जिसे ‘महान पलायन’ के नाम से जाना जाता है. वे पेशावर (अब पाकिस्तान में) होते हुए अफगानिस्तान पहुंचे, और फिर सोवियत संघ के रास्ते जर्मनी पहुंचे. उनका यह पलायन विश्व इतिहास की सबसे रहस्यमय और रोमांचक घटनाओं में से एक है.
जर्मनी में गतिविधियां और आजाद हिंद फौज का गठन (1941-1943)

जर्मनी पहुंचने के बाद, सुभाष चंद्र बोस ने खुद को ‘नेताजी’ के नाम से स्थापित किया. उन्होंने जर्मन अधिकारियों से भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया. उन्होंने भारतीय युद्धबंदियों को जर्मनी की ओर से लड़ने के लिए प्रेरित किया और ‘आजाद हिंद रेडियो’ की स्थापना की, जिसके माध्यम से उन्होंने भारत में अपने संदेश प्रसारित किए.
हालांकि, जर्मनी में उनकी उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली. जर्मन नेतृत्व भारत के प्रति उतना प्रतिबद्ध नहीं था जितना बोस चाहते थे. उन्हें यह भी एहसास हुआ कि जापान, दक्षिण-पूर्व एशिया में अपनी विस्तारवादी नीतियों के कारण, भारत की स्वतंत्रता में अधिक रुचि रख सकता है.
मार्च 1943 में, नेताजी एक जर्मन पनडुब्बी (U-boat) में सवार होकर मेडागास्कर के तट पर पहुंचे, जहां उन्होंने एक जापानी पनडुब्बी में स्थानांतरण किया. यह एक अत्यंत खतरनाक यात्रा थी, लेकिन बोस ने इसे भारत की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक जोखिम माना. वे जापान के कब्जे वाले दक्षिण-पूर्व एशिया पहुंचे.
आजाद हिंद फौज (INA) का नेतृत्व (1943-1945)

दक्षिण-पूर्व एशिया पहुंचने के बाद, नेताजी ने रास बिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता लीग और भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) का नेतृत्व संभाला. INA, जिसे मूल रूप से जापानी सेना ने ब्रिटिश भारतीय सेना के युद्धबंदियों से गठित किया था, अब नेताजी के करिश्माई नेतृत्व में एक मजबूत सैन्य शक्ति बन गई.
नेताजी ने INA को “दिल्ली चलो” का नारा दिया और भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने का संकल्प लिया. उन्होंने INA में पुरुष और महिला दोनों सैनिकों को शामिल किया. रानी लक्ष्मीबाई रेजिमेंट, जो महिलाओं की बटालियन थी, इतिहास में पहली बार एक महिला सैन्य इकाई थी.
INA ने जापान की सहायता से बर्मा (अब म्यांमार) के माध्यम से भारत की ओर बढ़ना शुरू किया. उन्होंने इम्फाल और कोहिमा की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हालांकि, मित्र देशों की सेनाओं के बढ़ते दबाव और आपूर्ति की कमी के कारण INA को पीछे हटना पड़ा.
नेताजी ने अपने सैनिकों को प्रेरित करते हुए कहा, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा!” यह नारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया. उन्होंने अपने सैनिकों में देशभक्ति और बलिदान की भावना भरी.
INA का प्रभाव और नेताजी का अंतिम भाग्य (1945)
INA, हालांकि सैन्य रूप से सफल नहीं हो सकी, लेकिन इसका भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा. INA के सैनिकों पर ब्रिटिश सरकार द्वारा चलाए गए मुकदमे ने भारत में राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर दी. भारतीयों ने INA के सैनिकों को नायक के रूप में देखा, जिन्होंने देश के लिए अपनी जान जोखिम में डाली थी. इन मुकदमों ने ब्रिटिश सरकार के लिए भारत पर शासन करना और मुश्किल बना दिया और स्वतंत्रता की मांग को और मजबूत किया.
द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, जापान की हार के साथ, INA भी बिखर गई. 18 अगस्त, 1945 को, नेताजी कथित तौर पर ताइवान में एक विमान दुर्घटना में मारे गए थे. हालांकि, उनकी मृत्यु को लेकर आज भी रहस्य बना हुआ है. कई लोगों का मानना है कि वे जीवित बच गए थे और बाद में कहीं और रहे. उनकी मृत्यु का रहस्य भारतीय इतिहास में सबसे बड़ा अनसुलझा रहस्य बना हुआ है.
नेताजी की विरासत
सुभाष चंद्र बोस एक दूरदर्शी नेता, एक महान रणनीतिकार और एक असाधारण देशभक्त थे. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दी. उनका मानना था कि स्वतंत्रता केवल अहिंसा के माध्यम से नहीं बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सैन्य शक्ति का उपयोग करके भी प्राप्त की जा सकती है.
उनकी विरासत कई मायनों में महत्वपूर्ण है:
- सशस्त्र संघर्ष का प्रतीक: उन्होंने भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी.
- राष्ट्रीय एकता के प्रतीक: उन्होंने जाति, धर्म और क्षेत्र की परवाह किए बिना भारतीयों को एकजुट करने का प्रयास किया.
- महिलाओं की भागीदारी: उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई रेजिमेंट के माध्यम से महिलाओं को सशस्त्र संघर्ष में शामिल करके एक क्रांतिकारी कदम उठाया.
- अंतर्राष्ट्रीयकरण: उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाया और विभिन्न देशों से समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया.
- प्रेरणा स्रोत: उनका साहस, त्याग और दृढ़ संकल्प आज भी लाखों भारतीयों को प्रेरित करता है.
निष्कर्ष
सुभाष चंद्र बोस का जीवन एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया. उनके साहसिक निर्णय, दृढ़ संकल्प और असाधारण नेतृत्व क्षमता ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी है. चाहे उनकी मृत्यु का रहस्य अनसुलझा ही क्यों न हो, नेताजी का नाम हमेशा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानतम नायकों में से एक के रूप में अमर रहेगा. उन्होंने हमें यह सिखाया कि यदि हम अपने लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्ध हैं, तो कोई भी बाधा हमें रोक नहीं सकती. उनका “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” का नारा आज भी हर भारतीय के दिल में गूंजता है, जो हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता एक अमूल्य अधिकार है जिसके लिए हमें हमेशा संघर्ष करते रहना चाहिए.
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