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Sant Kabir Jayanti June 2025: प्रेम, सच्चाई और सामाजिक बदलाव के प्रकाश स्तंभ को याद करने का दिन
Sant Kabir Jayanti June 2025: प्रेम, सच्चाई और सामाजिक बदलाव के प्रकाश स्तंभ को याद करने का दिन
Authored By: Sharim Ansari
Published On: Tuesday, June 10, 2025
Last Updated On: Tuesday, June 10, 2025
Sant Kabir Jayanti एक ऐसा दिन है जब हम न केवल संत कबीरदास के जीवन को याद करते हैं, बल्कि उनके अमूल्य विचारों, दोहों और सामाजिक क्रांति की विरासत को भी सम्मान देते हैं. 11 जून 2025, बुधवार को मनाई जाने वाली Sant Kabirdas Jayanti 2025 उन विचारों का उत्सव है, जो आज भी प्रेम, सच्चाई और जाति-धर्म से ऊपर मानवता का संदेश देते हैं. इस लेख में हम जानेंगे उनके जीवन का परिचय, गुरु रामानंद से जुड़ी आध्यात्मिक यात्रा, उनके साहित्यिक योगदान और प्रसिद्ध दोहों का गूढ़ अर्थ. साथ ही समझेंगे कि कबीर पंथ का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा और आज के दौर में कबीर की सोच कितनी जरूरी है. अगर आप Sant Kabir Jayanti के इतिहास, प्रभाव और संदेश को गहराई से समझना चाहते हैं, तो यह लेख आपके लिए है.
Authored By: Sharim Ansari
Last Updated On: Tuesday, June 10, 2025
संत कबीर दास हमारे भारत के एक बड़े आध्यात्मिक और साहित्यिक गुरु थे, जिनका असर आज भी हमारे समाज, संस्कृति और सोच पर गहरा महसूस किया जाता है. हर साल उनकी जयंती, जो इस बार 11 जून को ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा के दिन मनाई जाएगी, हमें उनके जीवन, उनकी रचनाओं और उनके विचारों को याद करने का मौका देती है.
कबीर की शिक्षाएं सिर्फ पुरानी बातें नहीं हैं, बल्कि आज के समय में भी हमारे समाज को बेहतर बनाने में मदद करती हैं. उनकी बातें हमें सिखाती हैं कि कैसे हम नफरत, झूठ, और भेदभाव को छोड़कर प्रेम, सच्चाई और इंसानियत को अपनाएं. इसलिए कबीर की जयंती पर उन्हें याद करना और उनके संदेशों को समझना हमारे लिए बहुत जरूरी है, ताकि हम एक मजबूत, समान और शांतिपूर्ण समाज की ओर बढ़ सकें.
विषय | विवरण |
---|---|
पूरा नाम | संत कबीर दास |
जन्म | 1398 ई. (कुछ स्रोत 1440 ई. भी मानते हैं), वाराणसी (काशी), उत्तर प्रदेश |
माता-पिता | नीरू (पिता), नीमा (माता) – मुस्लिम जुलाहा दंपति (दत्तक माता-पिता) |
प्रारंभिक जीवन | बचपन से ही साधारण जीवन, जुलाहा का कार्य, शिक्षा नहीं मिली, गुरु रामानंद से दीक्षा प्राप्त |
गुरु | स्वामी रामानंद |
धर्म/सम्प्रदाय | निर्गुण भक्ति, कबीर पंथ के संस्थापक, हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक |
प्रमुख रचनाएँ | साखी, सबद, रमैनी, दोहे (हिंदी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी मिश्रित भाषा) |
विचारधारा | एकेश्वरवाद, जातिवाद और पाखंड का विरोध, प्रेम, मानवता, सच्चाई, सभी धर्मों की आलोचना |
मृत्यु | 1518 ई., मगहर (उत्तर प्रदेश) |
प्रभाव | भक्ति आंदोलन, सिख धर्म (गुरु ग्रंथ साहिब में रचनाएँ), कबीर पंथ, सामाजिक और धार्मिक सुधार |
सम्मान/मान्यता | हिंदू, मुस्लिम, सिख – सभी समुदायों में आदर, आज भी दोहे और विचार प्रासंगिक |
जीवन परिचय Who Was Sant Kabir? – A Glimpse into His Life Journey

संत कबीर दास का जन्म 15वीं सदी में काशी (आज का वाराणसी) के पास लहरतारा नाम की जगह पर माना जाता है. उनके जन्म को लेकर कई कहानियाँ हैं, लेकिन ज्यादातर विद्वानों का मानना है कि उनका जन्म लगभग 1398 ईस्वी में हुआ था.
कबीर दास का पालन-पोषण एक मुस्लिम जुलाहा (कपड़ा बुनने वाला) दंपति ने किया था, जिनका नाम नीरू (पिता) और नीमा (माता) था. वे बहुत ही साधारण जीवन जीते थे और जुलाहा का काम करके अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे.
उनकी पत्नी का नाम लोई था. कबीर दास के एक बेटा कमाल और एक बेटी कमाली थी. उन्होंने ज़्यादातर जीवन काशी में बिताया, लेकिन अपने आखिरी समय में वे मगहर (उत्तर प्रदेश) चले गए, जहाँ 1518 ईस्वी में उनका निधन हो गया.
कबीर की मृत्यु के बाद, उनके अंतिम संस्कार को लेकर हिंदू और मुस्लिम अनुयायियों में विवाद हुआ. दोनों अपने-अपने तरीके से उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे. लेकिन एक मान्यता के अनुसार, जब लोग उनके शव को उठाने गए तो वहाँ केवल फूल मिले. फिर दोनों समुदायों ने उन फूलों को अपने-अपने रीति से श्रद्धांजलि दी.
गुरु रामानंद और आध्यात्मिक यात्रा (Guru Ramananda and Sant Kabir’s Spiritual Journey)
संत कबीर दास की आध्यात्मिक (धार्मिक) यात्रा में सबसे बड़ा मोड़ तब आया, जब उन्हें गुरु रामानंद जी से दीक्षा (ईश्वर का नाम लेने की शिक्षा) मिली.
एक मशहूर कहानी है कि उस समय रामानंद जी जात-पात में फर्क करते थे और छोटी जाति के लोगों को दीक्षा नहीं देते थे. कबीर इस भेदभाव को खत्म करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने एक अनोखा तरीका अपनाया.
एक दिन कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर सुबह-सुबह जाकर लेट गए. जब रामानंद जी वहाँ स्नान के लिए आए और कबीर पर पैर पड़ गया, तो उनके मुँह से अचानक “राम” नाम निकल गया. कबीर ने इसी शब्द को गुरु-मंत्र मान लिया. बाद में रामानंद जी भी कबीर की भक्ति और जिद को देखकर उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लिया.
कबीर की सोच और शिक्षा में रामानंद की भक्ति परंपरा और सूफी विचारधारा – दोनों का असर साफ दिखता है. यही वजह है कि उन्होंने इंसानियत, प्रेम और ईश्वर की एकता की बातें कीं, न कि धर्म, जाति या बाहरी पूजा-पाठ की.
साहित्यिक योगदान (Literary Legacy)

संत कबीर दास को हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के निर्गुण भक्ति मार्ग का सबसे बड़ा कवि माना जाता है. निर्गुण भक्ति का मतलब होता है – ऐसे ईश्वर की उपासना जो बिना रूप, रंग या मूर्ति के हर जगह मौजूद है.
कबीर ने धर्म, समाज और ईश्वर को लेकर बहुत ही गहरे विचार व्यक्त किए, लेकिन उनकी भाषा इतनी आसान होती थी कि आम लोग भी उसे आसानी से समझ लेते थे. उनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है, क्योंकि इसमें कई भाषाओं का मेल होता था – जैसे अवधी, ब्रज, भोजपुरी, अरबी और फारसी. यही कारण है कि उनके शब्द सीधे लोगों के दिल तक पहुँचते थे.
उनकी प्रमुख रचनाओं में शामिल हैं:
साखी – छोटे-छोटे दोहे जिनमें जीवन का गहरा ज्ञान छिपा है.
सबद – भक्ति और ज्ञान से जुड़ी रचनाएँ.
रमैनी – सामाजिक और आध्यात्मिक विषयों पर आधारित कविताएँ.
कबीर के दोहे आज भी आम लोगों की जुबान पर हैं. जैसे उनका प्रसिद्ध दोहा है:
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय.”
इसका मतलब है – जब मैं दूसरों की बुराई देखने निकला तो कोई बुरा नहीं मिला, लेकिन जब मैंने अपने दिल में झाँका, तो खुद को ही सबसे बुरा पाया.
इन दोहों में जीवन की सच्चाई, समाज की बुराइयों पर तीखा सवाल, और ईश्वर के प्रति प्रेम का सुंदर संदेश होता है.
कबीर की रचनाएँ सिर्फ हिंदी साहित्य तक ही सीमित नहीं हैं – उनकी कुछ रचनाएँ सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में भी शामिल हैं. इससे पता चलता है कि उनके विचार धार्मिक सीमाओं से ऊपर थे.
कबीर के विचारों और लेखन ने उत्तर और मध्य भारत में भक्ति आंदोलन को बहुत गहराई से प्रभावित किया. उन्होंने समाज को सिखाया कि ईश्वर मंदिर-मस्जिद में नहीं, बल्कि सच्चे दिल और अच्छे कर्मों में बसता है.
विचारधारा और सामाजिक दृष्टिकोण (Ideology and Views)
संत कबीर दास ने अपने समय में समाज में फैली कई बुराइयों और अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने लोगों को बताया कि भगवान को पाने के लिए जात-पात, पाखंड, कर्मकांड या धर्म के बाहरी दिखावे की जरूरत नहीं है.
उस समय समाज में कई तरह की कुरीतियाँ फैली थीं – जैसे जातिवाद, ऊँच-नीच का भेदभाव, मंदिर-मस्जिद को लेकर झगड़े, और धार्मिक रीति-रिवाजों का अंधानुकरण. कबीर ने इन सभी का खुलकर विरोध किया.
उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि –
“ना काबा में, ना काशी में, ना मंदिर में, ना मस्जिद में – भगवान वहाँ नहीं जहाँ लोग दिखावा करते हैं, बल्कि वहाँ है जहाँ दिल सच्चा है.”
कबीर न हिंदू धर्म के कर्मकांडों को सही मानते थे, न ही इस्लाम के बाहरी नियमों को. उनका कहना था कि भगवान को सच्चे मन, प्रेम और अच्छे आचरण से पाया जा सकता है – ना कि पूजा की चीज़ों, मूर्तियों, या किसी खास जगह पर जाने से.
उनकी ये सोच उस समय बहुत क्रांतिकारी थी, क्योंकि उन्होंने धर्म को इंसानियत और सत्य से जोड़ दिया, न कि जाति या समुदाय से.
कबीर ने हर इंसान को यह सीख दी कि अगर आप सच्चे दिल से प्रेम करते हैं, सच बोलते हैं और सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं – तो वही असली भक्ति है.
इस तरह कबीर दास ने समाज में बदलाव लाने का काम किया और लोगों को धर्म के नाम पर होने वाले अंधविश्वास और भेदभाव से ऊपर उठने का रास्ता दिखाया.
कबीर के प्रमुख विचार (Key Teachings and Beliefs)

- ईश्वर में विश्वास (एकेश्वरवाद)
कबीर मानते थे कि ईश्वर एक है – वह न तो किसी रूप, जाति या धर्म में बंधा है और न ही मूर्ति या किसी खास जगह में सीमित है. उनका भगवान निर्गुण (बिना रूप वाला) और सर्वव्यापी (हर जगह मौजूद) है.
“कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर.
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर.”
- जात-पात का विरोध
कबीर ने जातिवाद को पूरी तरह गलत बताया. वे कहते थे कि सभी इंसान एक जैसे हैं, और इंसान की पहचान उसकी सोच और कर्मों से होनी चाहिए, न कि उसकी जाति से.
- पाखंड और दिखावे का विरोध
कबीर पूजा-पाठ, व्रत, तीर्थ, मूर्तिपूजा जैसे धार्मिक दिखावे और कर्मकांडों के खिलाफ थे. उनका मानना था कि सच्ची भक्ति दिल से होती है, और इंसान को अपने आचरण और सोच को शुद्ध बनाना चाहिए.
- धर्मों में एकता और प्रेम
कबीर ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों को जोड़ने की कोशिश की. वे कहते थे कि धर्म के नाम पर लड़ाई और नफरत फैलाना गलत है. आपसी प्रेम, भाईचारा और सहनशीलता ही सच्चे धर्म के लक्षण हैं.
- आम लोगों की भाषा में बात
कबीर ने ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जो आसान, सीधी और आम लोगों की बोलचाल वाली थी. इसलिए उनकी बातें सीधे दिल तक पहुँचती हैं और हर कोई उन्हें समझ सकता है.
कबीर पंथ और प्रभाव (Kabir Panth and It’s Influence)

संत कबीर दास की बातें और सीखें सिर्फ उनके समय तक ही सीमित नहीं रहीं. उनके विचारों पर आधारित एक संप्रदाय बना जिसे कहा जाता है — ‘कबीर पंथ’. यह पंथ आज भी भारत ही नहीं, विदेशों में भी फैला हुआ है.
कबीर पंथी यानी कबीर के अनुयायी, आज भी लोगों को एक ईश्वर में विश्वास, मानवता, प्रेम, सच्चाई और आपसी भाईचारे की शिक्षा देते हैं. वे धर्म के नाम पर भेदभाव और पाखंड का विरोध करते हैं, और समाज में समानता और मेल-जोल की भावना फैलाते हैं.
कबीर का असर सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं रहा
कबीर के विचारों ने सिर्फ धार्मिक सोच को नहीं बदला, बल्कि उन्होंने सामाजिक सुधार और राजनीति पर भी गहरा प्रभाव डाला.
- उन्होंने हिंदू और मुस्लिम – दोनों धर्मों के लोगों में बराबर सम्मान पाया.
- कबीर ने जो कहा, वह साफ, बेबाक और सच्चा था. वे बिना किसी डर के सच्चाई बोलते थे, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा.
- उनकी बोलचाल की भाषा, जमीन से जुड़ी सोच, और हर वर्ग के लिए खुला संदेश उन्हें एक युग-पुरुष बना देता है — यानी ऐसा इंसान जिसकी सोच और काम समय से बहुत आगे थे.
आज के दौर में कबीर की जरूरत क्यों है?
आज के समय में जब समाज एक बार फिर से जात-पात, धर्म के नाम पर नफरत, और बाहरी दिखावे की ओर बढ़ रहा है — ऐसे माहौल में कबीर के दोहे और उनके विचार हमें फिर से इंसानियत और सच्चे धर्म की ओर लौटने की सीख देते हैं.
कबीर हमें यह बताते हैं कि धर्म का असली मतलब मंदिर जाना, व्रत रखना या पूजा करना नहीं, बल्कि यह है कि हम अपने अंदर की बुराई को पहचानें, दूसरों से प्रेम करें और सच्चे दिल से जीवन जिएं.
उनकी वाणी हमें ये बात सिखाती है कि —
- सच्चा धर्म किसी जाति या धर्म से नहीं, बल्कि प्रेम, दया और सच बोलने से होता है.
- ईश्वर को पाने का रास्ता हमारे मन और कर्मों से होकर जाता है, न कि किसी बाहरी रिवाज या कपड़े से.
- और सबसे ज़रूरी बात – अगर हम खुद को ठीक कर लें, तो समाज अपने आप बदलने लगेगा.
“कबीर जयंती पर, आइए उनके विचारों को आत्मसात करें और समाज में प्रेम, भाईचारे और मानवता का संदेश फैलाएँ.”