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Jagannath Rath Yatra 2024: यात्रा उत्सव में छप्पन भोग के साथ-साथ भगवान जगन्नाथ को दी जाती है औषधि भी, जानें कब से शुरू हो रही है यात्रा
Jagannath Rath Yatra 2024: यात्रा उत्सव में छप्पन भोग के साथ-साथ भगवान जगन्नाथ को दी जाती है औषधि भी, जानें कब से शुरू हो रही है यात्रा
Authored By: स्मिता
Published On: Thursday, July 4, 2024
Updated On: Monday, January 20, 2025
7 जुलाई (आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि) से शुरू हो रही जगन्नाथ रथ यात्रा (Jagannath Rath Yatra 2024) 16 जुलाई को समाप्त होगी। यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ के रथ नंदीघोष, भाई बलभद्र के रथ तलध्वज और सुभद्रा के रथ दर्पदलन को खींचने की होड़ भक्तों में दिखाई देगी। जानें जगन्नाथ रथ यात्रा और इनसे जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियां।
Authored By: स्मिता
Updated On: Monday, January 20, 2025
ओडिशा में होने वाले भगवान जगन्नाथ रथयात्रा में न कोई राजा होता है और न कोई रंक। न कोई अमीर होता है और न कोई गरीब। भक्तों की भीड़ में सभी बराबर होते हैं। सभी के बीच होड़ लगी होती है रथ की रस्सी को अपने हाथ से खींचने की। हर वर्ष की तरह इस बार भी ओडिशा के जगन्नाथपुरी में भाई बलदेव और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर भगवान जगन्नाथ यात्रा करेंगे। इस यात्रा के माध्यम से भगवान अपने भक्तों को संदेश देते हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं भगवान विष्णु पृथ्वी पर कई रूपों में अवतरित हुए। हर अवतार में उन्होंने बुराई पर अच्छाई की विजय और सभी जनों से प्रेम करने का संदेश दिया। भगवान विष्णु जिस-जिस स्थान पर अवतरित हुए, वे स्थान धाम कहलाये। इन धामों के बारे में मान्यता है कि जो कोई भी व्यक्ति यहां की यात्रा करता है, उसके सभी पाप मिट जाते हैं। मन में उठने वाले सभी बुरे विचारों का भी नाश हो जाता है। यही वजह है कि हिंदू धर्म में ओडिशा स्थित जगन्नाथपुरी को मुख्य तीर्थस्थल माना जाता है।
कब शुरू हो रही यात्रा
जगन्नाथ रथ यात्रा में यात्री और अध्यात्म के ज्ञाता डॉ. राजीव व्यास हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से जगन्नाथ रथ यात्रा शुरू होती है। इस साल जगन्नाथ रथ यात्रा (Jagannath Rath Yatra 2024) 7 जुलाई से शुरू होगी, जो 16 जुलाई को समाप्त हो जाएगी। भगवान जगन्नाथ अपने रथ नंदीघोष, भाई बलभद्र अपने तलध्वज रथ और बहन सुभद्रा दर्पदलन रथ पर सवार होकर यह यात्रा पूरी करेंगे। भक्त इन भव्य रथों को जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक खींचते हैं। रथ पर सवार होकर तीनों भाई-बहन नगर भ्रमण पर निकलते हैं। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से शुरू होने वाली यात्रा दशमी तिथि को संपन्न (16 जुलाई) हो जाती है।
धरती पर भक्तों के कष्ट दूर करते हैं भगवान
डॉ. राजीव व्यास के अनुसार, जगन्नाथपुरी चार धामों (बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथपुरी और रामेश्वरम) में भी शामिल है। स्कन्द पुराण, ब्रह्मपुराण, बृहद्नारदीयपुराण तथा देवीभागवत में भी इस स्थान की महिमा बताई गयी है। ब्रह्मपुराण में जगन्नाथपुरी को पुरुषोत्तम तीर्थ भी कहा गया है। यहां भगवान विष्णु भगवान श्रीकृष्ण के रूप में मौजूद हैं। श्रीकृष्ण यहां भगवान जगन्नाथ ( जगत के नाथ) कहलाते हैं। भगवान जगन्नाथ बहन सुभद्रा तथा बड़े भाई बलराम जी के साथ जगन्नाथपुरी मंदिर में दारु (काष्ठ) विग्रह के रूप में विराजते हैं। लेकिन उनके विग्रह अधूरे हैं। मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ आषाढ़ महीने में बलभद्र और सुभद्रा के साथ भक्तों की स्थिति देखने के लिए धरती पर विचरण करते हैं। दुखी और असहाय भक्तों के वे दुख-दर्द दूर कर देते हैं। यह यात्रा विश्व प्रसिद्ध है। इसलिए देश-विदेश से लाखों भक्त यहां आते हैं। रथ को स्वयं अपने हाथों से खींचकर वे पुण्य और मोक्ष प्राप्ति के भागी बन जाते हैं। 10 दिनों तक चलने वाली यह यात्रा उत्सव जैसा माहौल बना देती है।
क्या है अधूरे विग्रह की कथा
ब्रह्मपुराण के अनुसार, अवंती के राजा इंद्रद्युम्न ने अश्वमेध यज्ञ करके एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराने का निर्णय लिया। एक रात्रि राजा को स्वप्न में भगवान से आदेश मिला कि मंदिर में श्री हरि की काष्ठ की मूर्ति स्थापित करनी है। कथा है कि सुबह जब राजा समुद्रतट पर गया, तो उसे एक विशाल काष्ठ समुद्र में बहकर किनारे आता हुआ दिखाई दिया। राजा ने लकड़ी को समुद्र से निकलवा लिया। संयोगवश उसी समय लकड़ी के कार्य में निपुण एक वृद्ध कारीगर वहां पधारे। माना जाता है कि बढ़ई के रूप में वहां स्वयं विश्वकर्मा जी उपस्थित हो गए थे। उन्होंने राजा के सामने यह शर्त रखी कि जब तक मूर्ति बनाकर वे स्वयं मंदिर का दरवाजा नहीं खोलें, कोई भी व्यक्ति मंदिर के अंदर प्रवेश नहीं कर पाए। उस बड़ी लकड़ी को लेकर विश्वकर्मा जी मंदिर के अंदर बंद हो गए। कई दिन बीत जाने के बावजूद जब मंदिर का दरवाजा नहीं खुला, तो महारानी के बहुत आग्रह करने पर मंदिर का द्वार खोल दिया गया।इसके बाद देखा गया कि वहां कोई कारीगर नहीं था। वहां जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम जी के अधूरे काष्ठ विग्रह पड़े हुए थे। राजा ने उन तीनों अधूरे विग्रह को ही मंदिर में प्रतिष्ठित करा दिया।
कैसे संपन्न होती है यात्रा
ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ आमावस्या तक भगवान महालक्ष्मी के साथ एकांतवास करते हैं। आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा के दिन नेत्रोत्सव होता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान के तीनों नेत्र खुल जाते हैं। उसी समय जगन्नाथ जी यात्रा के लिए प्रस्थान करते हैं। तीनों रथों में सबसे आगे जगन्नाथ जी, मध्य में सुभद्रा जी तथा पीछे बलराम जी रथ पर सवार होते हैं। संपूर्ण रथ सजा होता है। स्वर्ण से सजा जगन्नाथ जी का रथ सबसे बड़ा होता है। इसमें हजारों घंटे, घड़ियाल, झांझर बजते रहते हैं। रथ का छत्र बहुत ऊंचा और बड़ा होता है। रथ पर रंग-बिरंगी पताका और ध्वज फहरती रहती है। ध्वज पर गरुड़ भी अंकित रहते हैं। रथ के आगे बहुत मजबूत और लंबे रस्सें बंधे होते हैं, जिन्हें स्त्री-पुरुष मिलकर खींचते हैं। जब रथ खींचा जाता है, तो चारों ओर गगनभेदी जय ध्वनि सुनाई देने लगती है। तीनों रथों को जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा भवन और गुंडिचा से मंदिर तक भक्तगण ही ले जाते हैं। गुंडिचा मंदिर में एक सप्ताह भगवान विश्राम करते हैं। फिर रथ लौटकर मंदिर की ओर आता है, तो उसे उल्टी रथ-यात्रा कहा जाता हैं।
मिठाई, खिचड़ी के साथ-साथ भोग में दी जाती है दवाई

भगवान की सेवा के अधिकारी होने में किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है। अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष सभी अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान का भोग लगाते हैं। वहीं भगवान को मिष्टान्न के साथ-साथ छप्पन भोग भी लगाया जाता है। यहां तक कि स्वास्थ्य खराब होने की आशंका होने पर औषधि भी उन्हें अर्पित की जाती है। भगवान जगन्नाथ के लिए चढ़ाया जाने वाला छप्पन भोग भक्तों के बीच काफी प्रसिद्ध है। भगवान को कई तरह की खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। बिहार और झारखंड की ख़ास मिठाई खाजा को भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को महाप्रसाद के रूप में भोग लगाया जाता है।