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तिब्बत मुद्दे पर अब आया नया मोड़, निर्वासित सरकार की बदलती रणनीति से क्या असर होगा चीन पर
तिब्बत मुद्दे पर अब आया नया मोड़, निर्वासित सरकार की बदलती रणनीति से क्या असर होगा चीन पर
Authored By: सतीश झा
Published On: Saturday, March 8, 2025
Updated On: Saturday, March 8, 2025
भारत के पड़ोस में नया सियासी गतिविधि शुरू हुई है. तिब्बत मुद्दे पर सरकार की पैनी नजर है. तिब्बत, भारत और चीन के बीच महीन रिश्ते-सा है. दुनिया के कई देश बदलते घटनाक्रम पर नजरें टिकाएं हुए हैं. असल में, सात दशकों से चले आ रहे तिब्बत विवाद में अप्रत्याशित मोड़ आया है.
Authored By: सतीश झा
Updated On: Saturday, March 8, 2025
वर्ष 2010 के बाद से पहली बार चीन ने तिब्बत (Tibet Issue) के निर्वासित नेताओं के साथ सीधे संवाद किया है. कई मीडियो रिपोर्ट के मुताबिक, यह बातचीत जुलाई 2024 में हुई थी, जो एक वर्ष से अधिक समय तक गुप्त रूप से चली मध्यस्थता प्रक्रिया का परिणाम थी. हालांकि वार्ता अभी शुरुआती चरण में है, लेकिन यह स्पष्ट संकेत है कि बीजिंग ने अपने रुख में बदलाव किया है. जानकारों का कहना है कि बीजिंग के चाल पर कोई भी सहसा विश्वास नहीं करता है.
दिलचस्प बात यह है कि इस बार वार्ता की पहल चीन ने की, जबकि पहले तिब्बती नेतृत्व ही संवाद के लिए प्रयासरत रहता था. चीन जब भी कोई पहल करता है, दूसरे देश उसे शंका से देखते हैं. तिब्बत के मामले में भी यही हो रहा है. भारत की नजर भी इस घटना पर पूरी ह ै. तिब्बत की निर्वासित सरकार के राजनीतिक प्रमुख (सिक्योंग) पेंपा छेरिंग ने कहा, “इस बार हम नहीं, बल्कि वे (चीन) हमसे संपर्क कर रहे हैं.“
अभी बातचीत क्यों करना चाहता है चीन ?
सबसे बड़ा सवाल यही है. तिब्बती नेतृत्व का मानना है कि चीन को अब 89 वर्षीय दलाई लामा के साथ वार्ता करने का दबाव महसूस हो रहा है, क्योंकि उनकी गिरती सेहत को देखते हुए समय सीमित हो सकता है. यह स्थिति पिछले वर्षों से बिल्कुल उलट है, जब तिब्बती पक्ष समझौते के लिए जल्दी में था. निर्वासित सरकार का मानना है कि चीन की वार्ता की इच्छा उसकी कमजोर होती कूटनीतिक स्थिति का संकेत है. तिब्बती नेतृत्व अब केवल मानवाधिकारों के मुद्दे पर नहीं बल्कि तिब्बत पर चीन के संप्रभुता के दावे को खुली चुनौती दे रहा है। यह बीजिंग के लिए बेहद संवेदनशील मुद्दा है.
मानवाधिकारों के भी हो रही है बात
पिछले कई दशकों से तिब्बत की निर्वासित सरकार पश्चिमी देशों की मदद से चीन की मानवाधिकार नीतियों की आलोचना करती रही. लेकिन यह रणनीति विफल रही, क्योंकि चीन ने तिब्बत में दमनकारी नीतियां और तेज कर दीं और 14 वर्षों तक किसी भी आधिकारिक वार्ता से इनकार कर दिया. अब तिब्बती नेतृत्व ने अपनी रणनीति बदली है. मानवाधिकार मुद्दों के बजाय वे अब चीन के तिब्बत पर ऐतिहासिक संप्रभुता के दावे को चुनौती दे रहे हैं. यह परिवर्तन सीधे बीजिंग की कूटनीतिक स्थिति पर हमला करता है.
तिब्बत पर बीजिंग के अलग-अलग दावे
- 1950 से पहलेः चीनी इतिहासकारों ने दावा किया कि तिब्बत 18वीं सदी (चिंग राजवंश) से चीन का हिस्सा था.
- 1950 के दशक के अंत मेंः चीन ने दावा किया कि तिब्बत 13वीं सदी (युआन वंश) में चीन में शामिल हुआ था.
- 2011 मेंः बीजिंग ने यह रुख बदलते हुए कहा कि तिब्बत “प्राचीनकाल से“ चीन का हिस्सा है.
दलाई लामा के उत्तराधिकारी का मुद्दाः चीन के लिए नई चुनौती
तिब्बत पर चीन की नीति में सबसे कमजोर कड़ी दलाई लामा के उत्तराधिकारी का सवाल है. चीनी सरकार ने दावा किया है कि अगला दलाई लामा चुनने का अधिकार केवल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के पास है. लेकिन तिब्बती इतिहास बताता है कि बीजिंग के ऐसे प्रयास कई बार असफल रहे हैं. चीन द्वारा नियुक्त 10वें पंचेन लामा ने चीनी नीतियों का विरोध किया और उन्हें दशकों तक जेल में रखा गया. 17वें करमापा, जो तिब्बती बौद्धों के महत्वपूर्ण धार्मिक गुरु हैं, 1999 में चीन छोड़कर भारत में शरण लेने आ गए. चीन द्वारा नियुक्त 11वें पंचेन लामा तिब्बती जनता का समर्थन नहीं जुटा पाए. यदि दलाई लामा द्वारा चुने गए उत्तराधिकारी को तिब्बत और दुनिया भर के तिब्बती मान्यता देते हैं, तो बीजिंग के द्वारा थोपा गया दलाई लामा पूरी तरह अस्वीकार्य हो जाएगा.
बीजिंग की पुरानी रणनीति और उसका उलटा असर
- दलाई लामा पर व्यक्तिगत हमलेः 1994 से चीनी सरकार लगातार दलाई लामा की छवि खराब करने की कोशिश कर रही है, जिससे तिब्बतियों में और गुस्सा बढ़ा.
- समय टालने की रणनीतिः 2002 से 2010 तक चीन ने वार्ता तो की लेकिन कोई ठोस समझौता नहीं किया, ताकि दलाई लामा की बढ़ती उम्र का फायदा उठाया जा सके.
‘रिजॉल्व तिब्बत एक्ट’ और अमेरिका की भूमिका
इस बदलाव की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब अमेरिकी कांग्रेस ने जुलाई 2024 में ’रिजॉल्व तिब्बत एक्ट’ पारित किया. इस विधेयक को राष्ट्रपति जो बाइडेन की मंजूरी भी मिल गई. यह कानून चीन को दलाई लामा के साथ ’गंभीर वार्ता’ करने के लिए बाध्य करता है. इससे पहले, अमेरिका मुख्य रूप से मानवाधिकारों पर ध्यान केंद्रित करता था लेकिन अब इस नए कानून में तिब्बत पर चीन के ऐतिहासिक दावे को सीधे चुनौती दी गई है. चीनी सरकार ने इस कानून की तीखी आलोचना की, क्योंकि यह बीजिंग के लिए संप्रभुता से जुड़ा मामला है. यदि चीन वार्ता से बचता है तो अमेरिका तिब्बत की कानूनी स्थिति पर अपनी मान्यता पर पुनर्विचार कर सकता है.
अब तिब्बत की निर्वासित सरकार इन विरोधाभासों को उजागर कर रही है और तिब्बत की स्वतंत्र राजनीतिक पहचान को फिर से स्थापित करने की रणनीति अपना रही है। ’रिजॉल्व तिब्बत एक्ट’ यह तर्क देता है कि तिब्बत ने सदियों तक एक अलग राष्ट्र के रूप में कार्य किया और 1950 के दशक में जबरन चीन द्वारा कब्जा किया गया।
अब कौन जल्दी में है – चीन या तिब्बत?
अब निर्वासित तिब्बती नेतृत्व जल्दबाजी में नहीं है. सिक्योंग पेंपा छेरिंग ने अप्रैल 2024 में कहा था, “हमें कोई जल्दबाजी नहीं है… इस समय किसी समाधान की उम्मीद करना व्यावहारिक नहीं है.“ यह बीजिंग के लिए एक बड़ा झटका है. दशकों तक चीन को लगता था कि समय उसके पक्ष में है लेकिन अब तिब्बती नेतृत्व वही रणनीति अपनाकर चीन पर दबाव बना रहा है. यह रणनीतिक बदलाव भले ही तुरंत चीन को वार्ता के लिए मजबूर न करे, लेकिन इसने पहले ही कई प्रभाव डाले हैं.
सवाल यह है कि क्या चीन वास्तव में निष्ठा से तिब्बती नेतृत्व से वार्ता करेगा या तिब्बत विवाद आने वाले वर्षों में और भड़क जाएगा? लेकिन एक बात तय है : इस बार चीन समय निकालने की रणनीति नहीं अपना सकता, क्योंकि तिब्बत की लड़ाई अब और भी मजबूत हो चुकी है.
(हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी के इनपुट के साथ)