रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ – हिंदी कविता का राष्ट्रीय स्वर

रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ – हिंदी कविता का राष्ट्रीय स्वर

Authored By: Sharim Ansari

Published On: Wednesday, July 9, 2025

Updated On: Wednesday, July 9, 2025

Ramdhari Singh Dinkar Poems

रामधारी सिंह दिनकर हिंदी साहित्य के एक अनुभवी कवि हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय जनचेतना, साहस, एकजुटता और देशभक्ति की भावना को अपनी कविताओं में उकेरा. उनके हर शब्द में जनभावनाओं की गर्जना सुनाई देती है - एक ऐसी प्रेरणा, जिसका प्रकाश हर पीढ़ी तक पहुंचाता रहेगा.

Authored By: Sharim Ansari

Updated On: Wednesday, July 9, 2025

इस लेख में:

रामधारी सिंह दिनकर हिंदी भाषा के एक महत्वपूर्ण कवि हैं — एक ऐसे कवि जिन्होंने अपने गीतों और कविताओं के ज़रीये राष्ट्रीय जनचेतना जगाई, साहस दिया, शौर्य का संदेश फैलाया, देशभक्ति की भावना भर दी और हर व्यक्ति के दिल में नए विश्वास का संचार किया. उनके कविता-संग्रह हिंदी साहित्य की ऐसी अनमिट विरासत हैं, जो हर पीढ़ी का मार्गदर्शन करते हैं, प्रेरित करते हैं और मुश्किल घड़ियों में साथ भी देते हैं. उनके शब्द सिर्फ कविता नहीं हैं — हर एक अनुभूति, हर एक भावना हिंदी जनमानस की आवाज़ है, जिसका प्रभाव लंबे समय तक रहेगा.

रामधारी सिंह दिनकर : जीवन पर एक नज़र

Ramdhari Singh Dinkar Poems

रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार राज्य के बेगूसराय ज़िले (गांव सिमरिया) में हुआ था. उनके पिता का नाम रवि शंकर सिंह था.

रामधारी सिंह दिनकर हिंदी भाषा के एक प्रमुख कवि, निबंधकार और अनुभवी विचारक रहे हैं, जिन्हें राष्ट्रीय भावना, जनजागृति और साहसपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए जाना जाता है. हिंदी साहित्य में उनके योगदान ने जनमानस पर गहरा प्रभाव दिया.

संसद सदस्य होने सहित उन्होंने हिंदी भाषा, साहित्य और राष्ट्रीय एकजुटता पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके मुख्य ग्रंथ — कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा — हिंदी कविता की अमर रचनाएँ माने जाते हैं.

रामधारी सिंह दिनकर का निधन 24 अप्रैल 1974 को चेन्नई में हुआ था. उनके साहित्य ने हिंदी जनजीवन पर एक चिरस्थाई छाप छोड़ी है, जिसका अनुभव हर पीढ़ी तक किया जाएगा.

राष्ट्रीय जनचेतना की अभिव्यक्ति

रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ राष्ट्रीय जनचेतना, साहस, एकजुटता, बलिदान और शोषण के विरोध पर केंद्रित रहती हैं. उनके शब्द हिंदी भाषा की ऊर्जा का प्रतीक हैं — हर कविता एक आन्दोलन जैसा अनुभव देती है.

रामधारी सिंह दिनकर की प्रेरक कविताएँ

Ramdhari Singh Dinkar Poems

हिमालय

“मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान्,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?

तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश.

सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,

जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत
सीमापति! तूने की पुकार,
‘पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार.’

उस पुण्य भूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल.
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

कितनी मणियाँ लुट गयीं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा; इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश.

किन द्रौपदियों के बाल खुले?
किन-किन कलियों का अंत हुआ?
कह हृदय खोल चित्तौर! यहाँ
कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ?

पूछे सिकता-कण से हिमपति!
तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिये
फिरनेवाला बलवान कहाँ?

तू पूछ, अवध से, राम कहाँ?
वृंदा! बोलो, घनश्याम कहाँ?
ओ मगध! कहाँ मेरे अशोक?
वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ?

पैरों पर ही है पड़ी हुई
मिथिला भिखारिणी सुकुमारी,
तू पूछ, कहाँ इसने खोयीं
अपनी अनंत निधियाँ सारी?

री कपिलवस्तु! कह, बुद्धदेव
के वे मंगल-उपदेश कहाँ?
तिब्बत, इरान, जापान, चीन
तक गये हुए संदेश कहाँ?

वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गंडकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?

तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अंबुधि-अंतस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?

प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर.

कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार.
सारे भारत में गूँज उठे,
‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार.

ले अँगड़ाई, उठ, हिले धरा,
कर निज विराट् स्वर में निनाद,
तू शैलराट! हुंकार भरे,
फट जाय कुहा, भागे प्रमाद.

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी! आज तप का न काल.
नव-युग-शंखध्वनि जगा रही,
तू जाग, जाग, मेरे विशाल!”

अरुणोदय

Ramdhari Singh Dinkar Poems

(15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतंत्रता के स्वागत में रचित)

“नई जय हो, आँखों के आगे यह सिमट रहा खग्रास.
ज्योति से भीग रहा उदयाचल का आकाश,

है फूट रही लालिमा, तिमिर की टूट रही घन कारा है,
जय हो, कि स्वर्ग से छूट रही आशिष की ज्योतिधारा है.

बज रहे किरण के तार, गूँजती है अंबर की गली-गली,
आकाश हिलोरें लेता है, अरुणिमा बाँध धारा निकली.

प्राची का रुद्ध कपाट खुला, ऊशा आरती सजाती है,
कमला जयहार पिन्हाने को आतुर-सी दौड़ी आती है.

जय हो उनकी, कालिमा धुली जिनके अशेष बलिदानों से,
लाली का निर्झर फूट पड़ा जिनके शायक-संधानों से.

परशवता-सिंधु तरण करके तट पर स्वदेश पग धरता है,
दासत्व छूटता है, सिर से पर्वत का भार उतरता है.

मंगल-मुहूर्त; रवि! उगो, हमारे क्षण ये बड़े निराले हैं,
हम बहुत दिनों के बाद विजय का शंख फूँकनेवाले हैं.

मंगल-मुहूर्त्त; तरुगण! फूलो, नदियो! अपना पय-दान करो,
जंज़ीर तोड़ता है भारत, किन्नरियो! जय-जय गान करो.

भगवान साथ हों, आज हिमालय अपनी ध्वजा उठाता है,
दुनिया की महफ़िल में भारत स्वाधीन बैठने जाता है.

आशिष दो वनदेवियो! बनी गंगा के मुख की लाज रहे,
माता के सिर पर सदा बना आज़ादी का यह ताज रहे.

आज़ादी का यह ताज बड़े तप से भारत ने पाया है,
मत पूछो, इसके लिए देश ने क्या कुछ नहीं गँवाया है.

जब तोप सामने खड़ी हुई, वक्षस्थल हमने खोल दिया,
आई जो नियति तुला लेकर, हमने निज मस्तक तोल दिया.

माँ की गोदी सूनी कर दी, ललनाओं का सिंदूर दिया,
रोशनी नहीं घर की केवल, आँखों का भी दे नूर दिया.

तलवों में छाले लिए चले बरसों तक रेगिस्तानों में,
हम अलख जगाते फिरे युगों तक झंखाड़ों, वीरानों में.

आज़ादी का यह ताज विजय-साका है मरनेवालों का,
हथियारों के नीचे से ख़ाली हाथ उभरनेवालों का.

इतिहास! जुगा इसको, पीछे तस्वीर अभी जो छूट गई,
गाँधी की छाती पर जाकर तलवार स्वयं ही टूट गई.

जर्जर वसुंधरे! धैर्य धरो, दो यह संवाद विवादी को,
आज़ादी अपनी नहीं; चुनौती है रण के उन्मादी को.

हो जहाँ सत्य की चिनगारी, सुलगे, सुलगे, वह ज्वाल बने,
खोजे अपना उत्कर्ष अभय, दुर्दांत शिखा विकराल बने.

सबकी निर्बाध समुन्नति का संवाद लिए हम आते हैं,
सब हों स्वतंत्र, हरि का यह आशीर्वाद लिए हम आते हैं.

आज़ादी नहीं, चुनौती है, है कोई वीर जवान यहाँ?
हो बचा हुआ जिसमें अब तक मर मिटने का अरमान यहाँ?

आज़ादी नहीं, चुनौती है, यह बीड़ा कौन उठाएगा?
खुल गया द्वार, पर, कौन देश को मंदिर तक पहुँचाएगा?

है कौन, हवा में जो उड़ते इन सपनों को साकार करे?
है कौन उद्यमी नर, जो इस खंडहर का जीर्णोद्धार करे?

माँ का अंचल है फटा हुआ, इन दो टुकड़ों को सीना है,
देखें, देता है कौन लहू, दे सकता कौन पसीना है?

रोली, लो उषा पुकार रही, पीछे मुड़कर टुक झुको-झुको
पर, ओ अशेष के अभियानी! इतने पर ही तुम नहीं रुको.

आगे वह लक्ष्य पुकार रहा, हाँकते हवा पर यान चलो,
सुरधनु पर धरते हुए चरण, मेघों पर गाते गान चलो.

पीछे ग्रह और उपग्रह का संसार छोड़ते बढ़े चलो,
करगत फल-फूल-लताओं की मदिरा निचोड़ते बढ़े चलो.

बदली थी जो पीछे छूटी, सामने रहा, वह तारा है,
आकाश चीरते चलो, अभी आगे आदर्श तुम्हारा है.

निकले हैं हम प्रण किए अमृत-घअ पर अधिकार जमाने को,
इन ताराओं के पार, इंद्र के गढ़ पर ध्वजा उड़ाने को.

सम्मुख असंख्य बाधाएँ हैं, गरदन मरोड़ते बढ़े चलो,
अरुणोदय है, यह उदय नहीं, चट्टान फोड़ते बढ़े चलो.”

आग की भीख

Ramdhari Singh Dinkar Poems

“धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा.
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज़ रो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे;
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे.
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ.
चढ़ती जवानियों का शृंगार माँगता हूँ.

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा.
तम-वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ.
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ.

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ, ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेरा हो रहा है.
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है;
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है.
पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता है.
जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता है.

मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरजू की लाशें निकल रही हैं.
भींगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुंधरा जब तुझको पुकारते हैं.
इनके लिए कहीं से निर्भीक तेज़ ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे,
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ.
विस्फोट माँगता हूँ, तूफ़ान माँगता हूँ.

आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे श्मशान में आ शृंगी ज़रा बजा दे;
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे.
आमर्ष को जगानेवाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे.
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ,
बेचैन ज़िंदगी का मैं प्यार माँगता हूँ.

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दे.
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे;
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे.
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता, विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे.
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ.”

तक़दीर का बँटवारा

Ramdhari Singh Dinkar Poems

रोचक तथ्य: सन् 1937 या 38 ई. में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता-वार्ता विफल होने पर

“है बँधी तक़दीर जलती डार से,
आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ?
वेदना मन की सही जाती नहीं,
यह ज़हर लेकिन, उगल आऊँ कहाँ?

पापिनी कह जीभ काटी जाएगी,
आँख-देखी बात जो मुँह से कहूँ,
हड्डियाँ जल जाएँगी, मन मारकर
जीभ थामे मौन भी कैसे रहूँ?

तानकर भौंहें, कड़कना छोड़कर
मेघ बर्फ़ी-सा पिघल सकता नहीं,
शौक़ हो जिनको, जलें वे प्रेम से,
मैं कभी चुपचाप जल सकता नहीं.

बाँसुरी जनमी तुम्हारी गोद में
देश-माँ, रोने-रुलाने के लिए,
दौड़कर आगे समय की माँग पर
जीभ क्या? गरदन कटाने के लिए.

ज़िंदगी दौड़ी नई संसार में,
ख़ून में सबके रवानी और है;
और हैं लेकिन, हमारी क़िस्मतें,
आज भी अपनी कहानी और है.

हाथ की जिसकी कड़ी टूटी नहीं,
पाँव में जिसके अभी जंज़ीर है;
बाँटने को हाय! तौली जा रही,
बेहया उस क़ौम की तक़दीर है!

बेबसी में काँपकर रोया हृदय,
शाप-सी आहें गरम आईं मुझे;
माफ़ करना, जन्म लेकर गोद में,
हिंद की मिट्टी! शरम आई मुझे.

गुदड़ियों में एक मुट्ठी हड्डियाँ,
मौती-सी ग़म की मलीन लकीर-सी.
क़ौम की तक़दीर हैरत से भरी,
देखती टुक-टुक खड़ी तसवीर-सी.

चीथड़ों पर एक की आँखें लगीं,
एक कहता है कि मैं लूँगा ज़बाँ;
एक की ज़िद है कि पीने दो मुझे
ख़ून जो इसकी रगों में है रवाँ!

ख़ून! ख़ूँ की प्यास, तो जाकर पियो
ज़ालिमो, अपने हृदय का ख़ून ही;
मर चुकी तक़दीर हिंदुस्तान की,
शेष इसमें एक बूँद लहू नहीं.

मुस्लिमो, तुम चाहते जिसकी ज़बाँ,
उस ग़रीबिन ने ज़बाँ खोली कभी?
हिंदुओ, बोलो, तुम्हारी याद में
क़ौम की तक़दीर क्या बोली कभी?

छेड़ता आया ज़माना, पर कभी
क़ौम ने मुँह खोलना सीखा नहीं.
जल गई दुनिया हमारे सामने,
किंतु हमने बोलना सीखा नहीं.

ताव थी किसकी कि बाँधे क़ौम को
एक होकर हम कहीं मुँह खोलते?
बोलना आता कहीं तक़दीर को,
हिंदवाले आसमाँ पर बोलते!

ख़ूँ बहाया जा रहा इंसान का
सींगवाले जानवर के प्यार में!
क़ौम की तक़दीर फोड़ी जा रही
मस्जिदों की ईंट की दीवार में.

सूझता आगे न कोई पंथ है,
है घनी ग़फ़लत-घटा छाई हुई,
नौजवानो क़ौम के, तुम हो कहाँ?
नाश की देखो घेड़ी आई हुई.”

दिल्ली

“यह कैसी चाँदनी अमा के मलिन तमिस्र गगन में!
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधूलि-लगन में?
मरघट में तू साज रही दिल्ली! कैसे शृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी, इस उजड़े हुए चमन में!
इस उजाड़, निर्जन खँडहर में,
छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर में,
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यनाश-प्रहर में!

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना,
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इन पर नमक हाय, छिड़काना!
महल कहाँ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फाँस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
ग़म, आँसू या गंगाजल का;

वह विहगों का झुँड लक्ष्य है
आजीवन वधिकों के फल का;
मरने पर भी हमें कफ़न है
माता शव्या के अंचल का.

गुलची निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,
कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में;
हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान.
यह अलका-छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में?
बिखरी लट, आँसू छलके हैं,
देख वंदिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं
दिल्ली! आह! क़लम रुक जाती.
अरी, विवश हैं, कहो, करें क्या?
पैरों में जंज़ीर हाय! हाथों—
में हैं कड़ियाँ कस जातीं.

और कहें क्या? धरा न धँसती,
हुँकरता न गगन संघाती;
हाय! वंदिनी माँ के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती.

तड़प-तड़प हम कहो करें क्या?
‘बहै न हाथ, दहै रिसि छाती’,
अंतर ही अंतर घुलते हैं,
‘भा कुठार कुंठित रिपु-घाती.’

अपनी गरदन रेत-रेत असि की तीखी धारों पर
राजहंस बलिदान चढ़ाते माँ के हुंकारों पर.
पगली! देख, ज़रा कैसी मर मिटने की तैयारी?
जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बनजारों पर.
तू वैभव-मद में इठलाती,
परकीया-सी सैन चलाती,
री ब्रिटेन की दासी! किसको
इन आँखों पर हे ललचाती?

हमने देखा यहीं पांडु-वीरों का कीर्ति-प्रसार,
वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महास्वप्न-अभिसार.
यहीं कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं शृंगार.
तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली!
मत फिर यों इतराती दिल्ली!
अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली!

हाय! छिनी भूखों की रोटी,
छिना नग्न का अर्द्ध वसन है;
मज़दूरों के कौर छिने हैं,
जिन पर उनका लगा दसन है;

छिनी सजी-साजी वह दिल्ली
अरी! बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ की;
और छिनी गद्दी लखनउ की
वाजिद अली शाह ‘अख़्तर’ की.

छिना मुकुट प्यारे ‘सिराज’ का,
छिना अरी, आलोक नयन का,
नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है
वन-वन लिए चंचु में तिनका.

आहें उठीं दीन कृषकों की,
मज़दूरों की तड़प, पुकारें,
अरी! ग़रीबों के लोहू पर
खड़ी हुईं तेरी दीवारें.

अंकित है कृषकों के गृह में तेरी निठुर निशानी,
दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी.
औ’ तेरा दृग-मद यह क्या है? क्या न ख़ून बेकस का?
बोल, बोल, क्यों लजा रही, ओ कृषक-मेघ की रानी?
वैभव की दीवानी दिल्ली!
कृषक-मेध की रानी दिल्ली!
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली!

अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे! तू छवि में इतराती!
परदेसी-सँग गलबाँही दे
मन में है फूली न समाती!

दो दिन ही के ‘बाल-डांस’ में
नाच हुई बेपानी दिल्ली!
कैसी यह निर्लज्ज नग्नता,
यह कैसी नादानी दिल्ली!

अरी, हया कर, है जईफ यह खड़ा क़ुतुब-मीनार,
इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी! हुशियार!
इन्हें देखकर भी तो दिल्ली! आँखें, हाय, फिरा ले,
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा, घूँघट ज़रा गिरा ले!
अरी, हया कर, हया अभागी!
मत फिर लज्जा को ठुकराती;
चीख़ न पड़ें क़ब्र में अपनी,
फट न जाय ख़बर की छाती.

हूक न उठे कहीं ‘दारा’ को
कूक न उठे क़ब्र मदमाती!
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा,
दिल्ली घूँघट क्यों न गिराती?

बाबर है, औरंग यहीं है,
मदिरा औ’ कुलटा का द्रोही,
बक्सर पर मत भूल, यहीं है
विजयी शेरशाह निर्मोही.

अरी! सँभल, यह क़ब्र न फटकर कहीं बना दे द्वार!
निकल न पड़े क्रोध में लेकर शेरशाह तलवार!
समझाएगा कौन उसे फिर? अरी, सँभल नादान!
इस घूँघट पर आज कहीं मच जाए न फिर संहार!
ज़रा गिरा ले घूँघट अपना,
और याद कर वह सुख-सपना,
नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में
दीवाने सलीम का तपना;
गुंबद पर प्रेमिका कपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन की आनंद-घड़ी में
जन्नत की परियों का जुड़ना.

ज़रा याद कर, यहीं नहाती—
थी मेरी मुमताज अतर में,
सुझ-सी तो सुंदरी खड़ी—
रहती थी पैमाना लेकर में.
सुख, सौरभ, आनंद बिछे थे.
गली, कूचे, वन, वीथि नगर में.
कहती जिसे इंद्रपुर तू, वह
तो था प्राप्त यहाँ घर-घर में.

आज आँख तेरी बिजली से कौंध-कौंध जाती है!
हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है!
खिलें फूल, पर, मोह न सकती
हमें अपरिचित छटा निराली:
इन आँखों में घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब की लाली.

उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी,
पलकें जुगा रहीं बीते वैभव की एक निशानी,
दिल्ली! तेरे रूप-रंग पर कैसे हृदय फँसेगा?
बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी.”

रामधारी सिंह दिनकर हिंदी भाषा और जनचेतना की ऐसी प्रेरणा हैं, जो हर हिंदी भाषी व्यक्ति पर असर डालेंगी. उनके शब्द एकजुट होने, साहसी बनने और राष्ट्रीय एकात्मता कायम रखने का संदेश देते हैं. उनके विचार हिंदी साहित्य की नींव का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं – एक ऐसी नींव, जो हर संकट पर साथ देती रहती है.

FAQ

रामधारी सिंह दिनकर की भाषा शक्तिशाली, ओजपूर्ण, हिंदीजनप्रिय और प्रेरक है. उनके शब्द साहस, विश्वास, राष्ट्रीय एकजुटता और जनचेतना जगाने का कार्य करते हैं.

रामधारी सिंह दिनकर ने मुख्य रूप से देशभक्ति, राष्ट्रीय एकजुटता, साहस, क्रांति, जनजागृति, शोषण पर विरोध, विश्वास, साहचर्य, दर्द, बलिदान, अनुभूतियों और भविष्य की उम्मीद पर लिखा.

रामधारी सिंह दिनकर हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय कवियों की पहली पंक्ति में हैं. उनके साथ जयशंकर प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसा नाम रखा जाता है, जिन्होंने हिंदी भाषा की अभिवृद्धि और जनजागृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

रामधारी सिंह दिनकर को उनके हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान की मान्यता स्वरूप ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्म भूषण सहित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए हैं.

रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ हमें साहस, विश्वास, एकजुट होने, संकट पर विजय पाने, राष्ट्रीय एकात्मता बनाए रखने, साथ ही जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं — उनके विचार हर काल में प्रेरक हैं.

About the Author: Sharim Ansari
मो. शारिम अंसारी ने कंवर्जेंट जर्नलिज़्म में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है और प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम करते हुए डिजिटल लेखन, रिसर्च और न्यूज़ स्टोरीज़ का अनुभव प्राप्त किया है. इनकी लेखन शैली तथ्यपूर्ण, सरल और प्रभावशाली होती है, जो पाठकों से सीधे जुड़ती है. कंटेंट निर्माण में इनकी पकड़ और गहराई स्पष्ट रूप से झलकती है.
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