Special Coverage
यूएन के मंच से गूंजी ‘शक्ति’ की आवाज
यूएन के मंच से गूंजी ‘शक्ति’ की आवाज
Authored By: अंशु सिंह
Published On: Friday, May 3, 2024
Updated On: Thursday, October 3, 2024
तीन मई, 2024... आज का दिन भारत की नारी शक्ति की गौरवपूर्ण उपलब्धि के लिए खास है। आज न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र (यूएन) मुख्यालय में भारत की तीन नारी शक्तियां इस विश्व मंच से दुनिया को संबोधित कर रही हैं। उनकी बुलंद आवाज दुनिया को दिखा रही है कि भारत की नारी कैसे आज अपने नेतृत्व में आत्मनिर्भरता और विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर है। इन तीनों महिला शक्तियों से गलगोटियाज टाइम्स के लिए खास बातचीत की हमारी विशेष अतिथि संवाददाता अंशु सिंह ने...। पढ़ें इस बातचीत पर आधारित हमारी एक्सक्लूसिव स्टोरी...
Authored By: अंशु सिंह
Updated On: Thursday, October 3, 2024
सेवा भाव के साथ उतरीं राजनीति के मैदान में
देश की आधी आबादी अर्थात् महिलाओं को पंचायती राज व्यवस्था में 50 फीसदी आरक्षण प्राप्त है। वे निर्वाचित होकर अपने-अपने पदों पर विराजमान भी होती हैं। लेकिन जब बात निर्णय लेने की आती है, तो वह कोई और लेता है। वर्षों से यही परिपाटी देखी जा रही है। कारण है अशिक्षा एवं अधिकारों को लेकर अनभिज्ञता। वैसे, अब यह स्थिति बदल रही है। शिक्षित महिलाएं सेवा भाव के साथ राजनीति का रुख कर रही हैं। अपने विकासोन्मुखी फैसलों के जरिये वे न सिर्फ अपने क्षेत्र का कायाकल्प कर रही हैं, बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा रही हैं। आइए मिलते हैं आंध्रप्रदेश, राजस्थान एवं त्रिपुरा की उन तीन निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों से जिन्होंने 3 मई को संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या एवं विकास आयोग (सीपीडी मीट-2024) के 57वें सत्र के एक कार्यक्रम के दौरान सतत विकास लक्ष्यों के स्थानीयकरण की दिशा में भारत में स्थानीय प्रशासन में महिला नेतृत्व शीर्षक पर अपने विचार रखे। साथ ही अपने क्षेत्र में किए गए विशेष पहलों, उपलब्धियों एवं अनुभवों को साझा किया। इन महिला जनप्रतिनिधियों का कहना था कि उनके जीवन का एक ही लक्ष्य है-महिला सशक्तीकरण के साथ अपने-अपने क्षेत्र का सर्वांगीण विकास…
सामाजिक सरोकार बना राजनीति का आधार : नीरू यादव

राजस्थान के झुंझनू जिले के बुहाना ब्लॉक की ग्राम पंचायत लांबी अहीर की सरपंच नीरू यादव गणित में परास्नातक हैं। उन्होंने सोचा नहीं था कि वे कभी राजनीति में आएंगी। सामाजिक मुद्दों से सरोकार जरूर रखती थीं। शादी के बाद जब गांव पहुंचीं और महिलाओं की स्थिति एवं क्षेत्र की समस्याओं को नजदीक से देखा, तो मन में विचार आया कि जनता का प्रतिनिधि बनकर उनकी मदद करनी है। इस तरह, वर्ष 2020 में उन्होंने सरपंच का चुनाव लड़ा और उसमें जीत हासिल की। गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं के लिए अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करना कितना कठिन है, इस पर नीरू कहती हैं, ‘यह कठिन है। इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है, क्योंकि समाज की मानसिकता नहीं बदली है। हर क्षेत्र की तरह यहां भी चुनौतियां हैं। खुद की चुनौतियों के बारे में बात करूं, तो सरपंच चुनाव के दौरान जब मैं कैंपेन कर रही थी, तो मुझे कई तरह की बातें सुननी पड़ीं। लोगों ने हर प्रकार से हतोत्साहित किया। मसलन, इतनी पढ़ी-लिखी होने के बावजूद राजनीति में क्यों आ रही हैं? मैं कितना बदल पाऊंगी समाज को वगैरह-वगैरह। ऐसे में अगर खुद का मनोबल मजबूत नहीं होगा, परिवार का सहयोग नहीं होगा, तो जीत से पहले ही हार मानने में देर नहीं लगेगी। मुझे पति और परिवार का हर कदम पर साथ मिला।‘
शिक्षा ने महिला जनप्रतिनिधियों को किया सशक्त
महिला सशक्तीकरण के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहीं नीरू का कहना है कि पंचायतों में आरक्षण के बावजूद राजनीति में महिलाओं की भागीदारी अब तक संतोषप्रद नहीं कही जा सकती है। हां, समय जरूर बदल रहा है। वह कहती हैं, ‘पहले पंचायतों में महिला जनप्रतिनिधि खुद से निर्णय नहीं ले पाती थीं। प्रधान पति या सरपंच पति का काफी दबदबा एवं हस्तक्षेप होता था। असल में वे ही फैसले लिया करते थे। लेकिन आज शिक्षित महिलाएं चुनाव मैदान में आ रही हैं। वे अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को लेकर जागरूक हैं। अपने निर्णय लेने में पूरी तरह सक्षम हैं। इससे बाकी महिलाओं का भी हौसला बढ़ा है। ग्राम सभाओं में उनकी बढ़ती उपस्थिति इसका परिचायक है।‘ नीरू का मानना है कि बदलाव एक बार में नहीं आता है, हमें छोटे-छोटे कदम बढ़ाने एवं प्रयास करने होते हैं। जब आधी आबादी को राजनीति में उसका उचित प्रतिनिधित्व मिलेगा, तो स्थितियां निश्चित तौर पर बदलेंगी और बेहतर होंगी।
हॉकी के जरिये बेटियों को बढ़ाया
नीरू हरियाणा की बेटी हैं, जहां खेलों पर विशेष जोर दिया जाता है। शादी के उपरांत जब वे झुंझनू पहुंचीं, तो यहां उन्होंने अपनी ग्राम पंचायत की लड़कियों को न सिर्फ खेलने के लिए प्रोत्साहित किया, बल्कि हॉकी के जरिये उन्हें एक नई पहचान देने की कोशिश की। इनके प्रयासों का ही नतीजा है कि आज गांव में लड़कियों की एक हॉकी टीम है। सभी प्यार से उन्हें ‘हॉकी वाली सरपंच’ कहते हैं। नीरू बताती हैं, ‘गांव में प्रतिभा की कमी नहीं है। सिर्फ उन्हें सही मंच, मौके एवं प्रशासन का सहयोग नहीं मिल पाता। हम ये भी भूल जाते हैं कि हर बच्चे की प्रतिभा अलग होती है। कोई पढ़ाई में, कोई खेल में तेज होता है। जब मैंने देखा कि लड़कियां हॉकी में रुचि लेती हैं, तब उन्हें सही प्रशिक्षण दिलाने का निर्णय लिया। कोच का इंतजाम किया। लड़कियों ने मेहनत की और आज अनेक प्रदेशों में खेलने जा रही हैं। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। सपने पूरे हुए हैं।‘ खेलों के अलावा नीरू बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दे रही हैं। स्कूल ड्रॉप आउट रेट को कम करने के लिए अभिभावकों से नियमित रूप से संवाद करती हैं, ताकि वे बच्चों और खासकर लड़कियों को स्कूल भेजना बंद न करें।
पर्यावरण एवं कृषि संबंधी मुद्दों पर फोकस
महिला सशक्तीकरण, उनकी आर्थिक उन्नति के अलावा नीरू स्वच्छता, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, कृषि से जुड़ी बुनियादी समस्याओं एवं पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर काम कर रही हैं। ‘मेरा पेड़, मेरा दोस्त मुहिम’ के तहत इन्होंने क्षेत्र के सरकारी स्कूलों में नि:शुल्क 21 हजार पौधे बांटे हैं और उनकी देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी है। वह कहती हैं, ‘पर्यावरण को बढ़ावा देने के लिए हमने शादियों पर कन्यादान के रूप में पेड़ देने की प्रथा शुरू की है। पंचायत को प्लास्टिक मुक्त बनाने के लिए बर्तन बैंक खुलवाए हैं। प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम करने के लिए महिलाएं पुराने कपड़ों से बैग का निर्माण करती हैं। इसके अलावा, हमने किसानों की मदद के लिए गांव में सहकारी समिति खुलवाई है, जहां से उन्हें उन्नत किस्म की बीज एवं कृषि संबंधी अन्य जानकारियां मिल पाती हैं।‘
महिलाओं का सशक्तीकरण है जीवन का लक्ष्य : सुप्रिया दास दत्ता

त्रिपुरा के सेपाहिजाला जिला परिषद की अध्यक्ष सुप्रिया दास दत्ता एक सशक्त नेता के रूप में उभरी हैं। महिलाएं निडर होकर अपनी बात रख सकें, उसके लिए ग्राम सभाओं को मजबूत किया है। साथ ही विभिन्न मंचों के निर्माण में अहम भूमिका निभाई है। वह कहती हैं, ‘पंचायती राज व्यवस्था ने महिला सशक्तीकरण को नई दिशा दी है। इससे उन्हें अपनी बात कहने का एक मंच मिला है। वे समाज की महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए कार्य कर पाई हैं। जिला परिषद अध्यक्ष बनने के उपरांत मैंने अपने जिले को चाइल्ड फ्रेंडली बनाने का प्रयास किया है। राज्य एवं केंद्र सरकार की सहायता से जिले में नशा मुक्ति अभियान चलाया जा रहा है। बतौर लीडर मेरी यही कोशिश होती है कि कैसे महिलाओं को सशक्त बनाने के साथ समाज के हर वर्ग का विकास कर सकूं।‘
सेल्फ हेल्प ग्रुप से लाई नई क्रांति
मुश्किल आर्थिक हालात के बीच पली-बढ़ीं सुप्रिया का राजनीति की दुनिया से कोई लेना-देना नहीं था। पता था तो सिर्फ शिक्षा का महत्व। इसे हासिल करने के लिए उन्होंने हर परिस्थिति का सामना किया और आखिरकार प्रथम श्रेणी में माध्यमिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। लेकिन वर्ष 2005 में उनकी शादी हो गई। वह बताती हैं, ‘मुझे अंदाजा नहीं था कि पति एवं ससुरालवाले आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। उन्हें मेरे अंदर पढ़ाई के प्रति गहरी लगन दिखाई दी। उनके कहने पर ही मैंने डीफार्मा किया। मेरी इच्छा लोगों की सेवा करने की थी। 2019 में जब पंचायत चुनाव लड़ने का मौका मिला, तो लगा कि मैं बतौर जनप्रतिनिधि ऐसा कर सकती हूं। मेरा पहला लक्ष्य था-महिलाओं को स्वावलंबी बनाना। इसके लिए सेल्फ हेल्फ ग्रुप पर फोकस किया और देखते ही देखते इसकी संख्या 10 गुना बढ़ गई। पहले जहां सिर्फ 600 के करीब स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) थे, वहीं आज 6000 से अधिक एसएचजी हैं, जिनसे 60 हजार से अधिक महिलाएं जुड़ी हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के कारण उनके जीवन का स्तर ऊंचा हुआ है। हमारे यहां हजारों लखपति दीदियां हैं। इन सबका मुझे बहुत गर्व है।‘
लड़कियों की शिक्षा व नशामुक्ति पर जोर
सुप्रिया का कहना है कि स्वयं सहायता समूह के जरिये न सिर्फ महिलाओं की आर्थिक उन्नति होती है, बल्कि उनके अंदर नेतृत्व क्षमता का भी विकास होता है। उनकी निर्णय शक्ति बढ़ती है। वह आगे कहती हैं, ‘लीडरशिप रोल निभाने के लिए महिलाओं का शिक्षित होना जरूरी है। इसलिए हम लड़कियों के स्कूल ड्रॉप आउट दर को कम करने का प्रयास कर रहे हैं। खासकर अल्पसंख्यक समुदाय में लड़कियों को पढ़ाने को लेकर उदासीन रवैये को दूर करने के लिए जिला प्रशासन के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। इसके अलावा, सिंगल मदर्स के लिए भी कुछ सरकारी योजनाओं को लागू किया गया है। मैं सबका साथ, सबका विश्वास मंत्र को फॉलो करते हुए समाज के हर वर्ग के लिए कार्य करने को लेकर प्रतिबद्ध हूं।‘
महिलाओं के विकास से जुड़ा देश का विकास
इसमें शक नहीं कि शिक्षा ने महिलाओं को वह ताकत दी है, जिससे वे अपने निर्णय स्वयं कर सकती हैं। सुप्रिया कहती हैं, ‘यह एक ऐसा सच है जिसने पंचायती राज व्यवस्था की तस्वीर बदल दी है। अब पंचायत या जिला परिषद के फैसले प्रधानपति नहीं, खुद निर्वाचित महिला प्रतिनिधि लेती हैं। कहते भी हैं कि वही समाज व राष्ट्र आगे बढ़ता है, जिसमें महिलाओं को अपने विकास का पूरा मौका मिलता है।‘ इनकी मानें, तो ज्यादा से ज्यादा महिलाओं एवं युवा पीढ़ी को राजनीति में आना चाहिए। क्योंकि एक निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में वे जितनी देश की सेवा कर सकते हैं, वह मौका उन्हें कहीं और नहीं मिलेगा।
वूमन फ्रेंडली पंचायत होने पर है गर्व : हेमा कुमारी

आंध्रप्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के पेकेरु ग्राम पंचायत की सरपंच हेमाकुमारी का जीवन किसी और ही दिशा में चल रहा था। बीटेक करने के पश्चात वे टनकु स्थित एसएमवीएमपी पॉलिटेक्निक में इलेक्ट्रॉनिक्स एवं कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग विभाग में एसोसिएट लेक्चरर थीं। पांच वर्ष वहां कार्य करने के बाद उन्होंने काकीनाड़ा स्थित जेएनटीयू यूनिवर्सिटी से एमटेक किया और फिर सिटी इंजीनियरिंग कॉलेज में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर कार्य करने लगीं। एक दिन अचानक उनकी जीवन रूपी गाड़ी नए रास्ते पर चल पड़ी। वर्ष 2021 में उन्होंने जिला परिषद के चुनाव में किस्मत आजमाने का निर्णय लिया और अप्रैल में वे सरपंच चुनी गईं। वर्तमान में वे मंडल सरपंच चैंबर की अध्यक्ष एवं जिला सरपंच चैंबर की महासचिव भी हैं। हेमा बताती हैं, ‘मैंने समाज में महिलाओं के साथ होने वाले तमाम भेदभावों को करीब से देखा था। कैसे उनके स्वास्थ्य की अनदेखी होती है। उन्हें अपनी मर्जी से पढ़ने का अधिकार नहीं। पैसे के लिए पिता या पति पर निर्भर रहना पड़ता है। इन्हीं सब बातों ने मुझे राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया। अगर एक महिला अपनी सेहत एवं शिक्षा का ध्यान रखती है, तो उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने से कोई रोक नहीं सकता है।‘
महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान
हेमा के अनुसार, सरपंच बनने के बाद उन्होंने मुख्य रूप से महिलाओं के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं उनकी वित्तीय आजादी जैसे मुद्दों पर काम किया। वह बताती हैं, ‘मैंने देखा था कि गांवों में गर्भवती महिलाओं की सुरक्षित डिलीवरी कितनी बड़ी चुनौती है। उन्हें स्वास्थ्य संबंधी अन्य समस्याओं से दो-चार होना पड़ता था। शिशु मृत्य दर भी काफी ऊंचा था। इसलिए मैंने सुनिश्चित किया कि गांव में अनुभवी डॉक्टरों की देखरेख में नियमित रूप से मेडिकल कैंप लगाए जाएं। साथ ही महिलाओं के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था कराई। इससे काफी फर्क पड़ा।‘ हेमा स्कूलों में भी रेगुलर हेल्थ चेकअप कैंप्स कराती रहती हैं, जिससे बच्चों की इम्युनिटी, हीमोग्लोबिन के स्तर, विटामिन आदि की कमी के बारे में जानकारी मिल सके। उन्हें पौष्टिक सप्लीमेंट्स उपलब्ध कराए जा सकें।
बेटियों के स्कूल ड्रॉप आउट दर को किया कम
आज लड़कियां क्या कुछ हासिल नहीं कर रही हैं। लेकिन गांवों में उनके साथ भेदभाव अब भी जारी है। खासकर उन्हें शिक्षित करने को लेकर समाज का रवैया काफी उदासीन है। इसके अलावा, सरकारी योजनाओं की जानकारी के अभाव में भी ग्रामीण अभिभावक बेटियों की शिक्षा को नजरअंदाज करते हैं। हेमा बताती हैं, ‘मैंने देखा कि स्कूल ड्रॉप आउट्स में लड़कियों की संख्या ज्यादा होती है। लोग नहीं चाहते हैं कि बेटियां पढ़ें, उच्च शिक्षा हासिल करें। लिहाजा, मैंने अभिभावकों के साथ बैठकें कीं। उन्हें सरकारी योजनाओं, सुविधाओं की जानकारी दी और समझाया कि लड़कियों की आर्थिक स्वतंत्रता के लिए पढ़ाई कितनी जरूरी है। इस काउंसलिंग का थोड़ा प्रभाव पड़ा और पहली से आठवीं कक्षा में स्कूलों में लड़कियों के दाखिले हुए। मेरा मानना है कि जब हम एक लड़की या महिला को शिक्षित करते हैं, तो पूरे परिवार और समाज की मानसिकता में बदलाव आता है।‘
महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन पर जोर
हेमा का कहना है कि ग्रामीण समाज में कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण परित्यक्त, विधवा एवं बुजुर्ग महिलाओं को अपने जीवनयापन के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है जबकि राज्य एवं केंद्र सरकार की कई योजनाएं हैं, जो महिलाओं को वित्तीय मदद पहुंचाती हैं। उन्हें रोजगार के लिए भी ऋण दिए जाते हैं। लेकिन जानकारी के अभाव में महिलाएं उसका लाभ नहीं उठा पाती हैं। हेमा कहती हैं, ‘मैंने इस समस्या को दूर करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए। आज एक हजार के करीब महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन चुकी हैं। अपना व्यवसाय कर रही हैं। हैंडीक्राफ्ट के जरिये कमाई कर रही हैं। हमारा पंचायत वूमन फ्रेंडली पंचायत के तौर पर जाना जाता है। ग्राम सभा के दौरान महिलाएं खुलकर अपनी समस्याएं एवं विचार व्यक्त करती हैं। मैं हर महिला को सुनने के लिए उपलब्ध रहती हूं। मुझे खुशी है कि उनके लिए कुछ कर पाती हूं। मेरे लिए उनका सम्मान एवं आत्मविश्वास बहुत मायने रखता है।‘
समाज के तानों की नहीं की परवाह
यह अजीब विडंबना है कि उच्च शिक्षा हासिल करने, स्वतंत्र रूप से फैसले लेने एवं गांव के विकास के लिए कार्य करने के बावजूद हेमा लोगों के तानों से बच नहीं सकीं। उन पर अंगुली उठी कि एक महिला होकर वे कैसे सड़क, पानी, जैसी दूसरे बुनियादी मुद्दों पर काम कर सकेंगी। लेकिन हेमा ने इन बातों की परवाह नहीं की और ऐसे सारे कार्य पूर्ण करके दिखाए। आखिर ये प्रोत्साहन एवं शक्ति कहां से मिलती है, इस पर उनका जवाब था-‘परिवार से। अगर परिवार साथ हो, तो एक महिला मुश्किल से मुश्किल कार्य को संपन्न कर सकती है।‘ हेमा का पैशन शिक्षण था। लेकिन अपने आसपास की समस्याओं का समाधान निकालने के लिए उन्होंने राजनीति में आने का निर्णय लिया और नौकरी छोड़ जनता की सेवा के लिए निकल पड़ीं। वे कहती हैं कि एक शिक्षित महिला अपने गांव, जिले एवं देश का सही विकास कर सकती है। सिस्टम को अधिक पारदर्शी बना सकती है। यहां तक कि लैंगिक भेद के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकती हैं।