कोटा में टूटते सपने, कौन है जिम्मेदार

कोटा में टूटते सपने, कौन है जिम्मेदार

Authored By: अंशु सिंह

Published On: Wednesday, November 27, 2024

राजस्थान के कोटा शहर में नीट एवं जेईई की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए देश भर से बड़ी संख्या में छात्र पहुंचते हैं। लेकिन उन्हें कहीं से आभास नहीं होता है कि आगे की यात्रा कितनी संघर्षपूर्ण हो सकती है? उन्हें पढ़ाई के साथ कई अन्य प्रकार की जिम्मेदारियां संभालनी पड़ सकती हैं। वे जीवन में अचानक से आने वाले परिवर्तनों को संभाल नहीं पाते और फिर झकझोर देने वाली घटनाएं सामने आने लगती हैं। हाल ही में कोटा में जेईई की तैयारी कर रहे भोपाल के 18 वर्षीय स्टूडेंट्स ने अपने हॉस्टल में सुसाइड कर लिया। इससे पहले सितंबर महीने में नीट परीक्षा की तैयारी में लगे एक युवा ने जान दे दी थी। आंकड़े बताते हैं कि इस वर्ष अब तक 16 से अधिक स्टूडेंट्स ने सुसाइड किया है। पिछले वर्ष कुल 29 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी। आखिर क्यों समय से पहले बिखर और टूट जा रहे हैं मासूमों के सपने?

Authored By: अंशु सिंह

Last Updated On: Wednesday, November 27, 2024

हाइलाइट्स

  • कोटा के टेस्ट प्रिपरेशन का सालाना कारोबार 5000 करोड़ रुपये से अधिक का बताया जाता था, जो अब इसके आधे से भी कम रह गया है।
  • 2022 में प्रति स्टूडेंट औसत फीस 1.2 लाख रुपये सालाना थी, जो 2024 में एक लाख रुपये सालाना रह गई है।
  • 2022 में कोटा में तैयारी करने वाले स्टूडेंट्स की संख्या 2.5 लाख थी, जो 2024 में 1.2 लाख के आसपास रह गई है।

उत्तर प्रदेश के बदायूं के 17 वर्षीय अभिषेक पिछले दो वर्षों से कोटा के हॉस्टल में रहकर नीट परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। लेकिन हाल ही में उन्होंने कोचिंग जाने की बजाय हॉस्टल से ही ऑनलाइन क्लासेज करने शुरू कर दिए थे। अचानक फरवरी के महीने में एक दिन परिजनों को सूचना मिली कि अभिषेक ने आत्महत्या कर ली है। इससे पहले जनवरी के महीने में भी कोटा में रहकर जेईई मेन्स की तैयारी कर रहे एक 17 वर्षीय छात्र ने अपना जीवन समाप्त कर लिया। वह भी उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर से यहां आया था और गेस्ट हाउस में रहता था। उसने भी कुछ समय से उस कोचिंग में जाना बंद कर दिया था, जहां से वह तैयारी कर रहा था। उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, मध्य प्रदेश एवं अन्य राज्यों से आने वाले कई और छात्रों ने भी विगत वर्षों में आत्महत्या की है।

भावनात्मक सपोर्ट न मिलने से अकेलापन

यहां आने वाले बहुत से बच्चे पहली बार घर से दूर रहने आते हैं। पढ़ाई के साथ उन्हें अपने सभी दैनिक कार्य खुद से निपटाने पड़ते हैं। निजी चीजों, लॉन्ड्री, अलमारी सहेजने व दूसरी जिम्मेदारियां खुद ही संभालनी होती है। लेकिन जिन्हें ये सब करने की आदत नहीं होती है, उन पर अचानक से इन कार्यों का दबाव आ जाता है। अकेले कमरों में रहने और किसी प्रकार का भावनात्मक सपोर्ट न होने के कारण बच्चे अकेलापन महसूस करने लगते हैं। वीर ने भी पटना से दसवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद चार वर्ष पहले कोटा का रुख किया था। वहां उन्होंने नीट की तैयारी के लिए एक प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थान में दाखिला लेने के अलावा स्थानीय स्कूल में 12वीं कक्षा में अपना नामांकन भी करा लिया था। बताते हैं वीर, ‘मैंने कोटा जाने से पहले स्कूल के कुछ वैसे सीनियर्स से बात की थी, जिन्होंने वहां रहकर मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम में सफलता पाई थी। शुरुआत में मुझे भी कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ा। घर से दूर रहने के कारण अकेलापन महसूस होता था। उस पर से पढ़ाई का दबाव रहता था सो अलग। मैं खुद कुछ समय के लिए डिप्रेशन में रहा। फिर ऑनलाइन थेरेपी की मदद से उससे उबर सका।‘

क्या पैरेंट्स की अपेक्षाएं बन रही घातक ?

कोटा में ही रहकर जेईई की तैयारी करने वाली देहरादून की सुरभि का कहना है कि यहां स्टूडेंट्स छोटे-छोटे कमरों में रहते हैं। पढ़ाई के अलावा कोई और एक्टिविटी नहीं होती। बेहद एकाकी सी हो जाती है लाइफ। फैकल्टी मोटिवेट करते हैं, लेकिन क्लास में हर स्तर के स्टूडेंट्स होने के कारण प्रतिस्पर्धा भी कड़ी होती है। ऐसे में जिनका परफॉर्मेंस अच्छा नहीं होता है, स्कोर कम आते हैं, तो वे बच्चे तनाव में आ जाते हैं। इसमें पैरेंट्स का भी काफी दबाव होता है। कई बार यही काफी घातक साबित होता है। सवाल है कि क्या बच्चे सिर्फ पैरेंट्स की इच्छा एवं उम्मीदें पूरी करने के लिए कोटा की दौड़ लगा रहे हैं? कोचिंग संस्थानों में स्टूडेंट्स के लिए काउंसलिंग की व्यवस्था का क्या हाल है? करियर काउंसलर परवीन मल्होत्रा का कहना है कि पैरेंट्स की अपेक्षाएं अपने बच्चों से काफी बढ़ गई हैं। वे एक अंधी दौड़ का हिस्सा बनते जा रहे हैं। बच्चों को किसी घोड़े के समान समझने लगे हैं। किसी करीबी जानने वाला का बच्चा इंजीनियर या डॉक्टर बन जाता है, तो उन्हें लगता है कि उनका बच्चा ऐसा क्यों नहीं कर सकता और फिर वे बिना किसी तैयारी या योजना के अपने बच्चे को कोटा भेज देते हैं। ये वे अभिभावक हैं, जो शायद ही बच्चों से पूछते हैं कि आखिर उनकी खुद की इच्छा क्या करने या पढ़ने की है? इसी का परिणाम आज हम सब इन आत्महत्याओं के रूप में देख रहे हैं।

देखादेखी में किए गए फैसले से नुकसान

आखिर इन युवाओं की आत्महत्या के लिए कौन जिम्मेदार है? जानकारों का मानना है इस तरह की आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर बच्चे के करियर का निर्णय करने से लेने के देने पड़ सकते हैं, क्योंकि संभव है कि बच्चे की रुचि मेडिकल या इंजीनियरिंग से अधिक पेंटर या कुछ और बनने में हो। इस पर कम ही पैरेंट्स ध्यान देते हैं। ज्यादातर अभिभावकों को लगता है कि उनके बच्चे ने बोर्ड परीक्षा में 90 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं, तो उसे डॉक्टर या इंजीनियर ही बनना चाहिए। जबकि जेईई या नीट की परीक्षाएं काफी कठिन होती हैं। उन्हें क्रैक करना आसान नहीं होता है। करियर काउंसलर परवीन के अनुसार, अच्छा ये रहेगा कि कोटा या कहीं और भेजने से पहले बच्चे का प्रोफेशनल एप्टीट्यूड टेस्ट कराया जाए। इससे पता चल जाएगा कि उसकी खुद की इच्छा क्या करने की है? अभिभावकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे दूसरों से अपने बच्चों की तुलना करना बंद करें। उनके मन को समझने का प्रयास करें। जब दोस्त बनकर संवाद करेंगे, तभी बच्चा बेखौफ होकर अपने दिल की बात साझा करेगा और उसका अकेलापन दूर होगा।

घर के पास ढूंढें विकल्प

हम सब जानते हैं कि कैसे देश भर में 12वीं के नतीजे निकलने के बाद कॉलेज में एडमिशन की जद्दोजहद शुरू हो जाती है। वहीं, जो छात्र मेडिकल या इंजीनियरिंग में अपना करियर बनाना चाहते हैं, वे बड़े शहरों के कोचिंग संस्थानों के चक्कर लगाने शुरू कर देते हैं। बाहर जाने वाले सबसे अधिक राजस्थान के कोटा शहर को प्राथमिकता देते हैं। अब सवाल यह है कि क्‍या अपने प्रदेश में, घर के करीब रहकर ऐसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी नहीं की जा सकती है? देश के तमाम नामी-गिरामी कोचिंग संस्थानों (कोटा के भी) के ब्रांच छोटे शहरों में मौजूद हैं। उनके अलावा, स्थानीय स्तर पर एक से बढ़कर एक विशेषज्ञ शिक्षक हैं, जो स्टूडेंट्स का मार्ग-दर्शन कर सकते हैं।

बेंगलुरू में अमेजन कंपनी में सीनियर सॉफ्टवेयर डेवलपर के पद पर कार्यरत विक्की बताते हैं, ‘मैं वाराणसी से हूं और वहीं रहते हुए जेईई की तैयारी की थी। ज्यादा फोकस सेल्फ स्टडी पर रखा था। सिर्फ केमिस्ट्री के लिए एक स्थानीय शिक्षक से सहायता ली थी। एंट्रेंस क्लियर करने के बाद मैंने एनआइटी राउरकेला से बीटेक किया और वहीं से कैंपस प्लेसमेंट भी हो गया। इसलिए प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले बच्चों से यही कहना चाहूंगा कि मेहनत हमें खुद करनी होती है। हमारे कॉन्सेप्ट्स जितने क्लियर होते हैं, परीक्षा का दबाव उतना कम होता है। मार्ग-दर्शन के लिए अपने शहर में भी अच्छे एवं काबिल शिक्षक मिल ही जाते हैं। अब तो मदद के लिए ऑनलाइन एजुकेशन प्लेटफॉर्म्स भी हैं।‘ वहीं, करियर काउंसलर्स का मानना है कि अगर बच्चा बाहर जाकर पढ़ने या तैयारी करने की जिद भी करता है, तो पैरेंट्स को उसे समझाना चाहिए। परिवार के संग रहने से किशोर उम्र के बच्चों की किसी भी भावनात्मक या मानसिक परिवर्तन को आसानी से देखा-समझा जा सकता है। उनकी गलतियों को समय रहते ठीक किया जा सकता है। कोचिंग संस्थानों एवं हॉस्टल संचालकों को भी इस तरह की परेशानियों से लड़ने के लिए पर्याप्त व्यवस्था एवं निगरानी करने की जरूरत है। बच्चों को जागरूक करने से भी चीजें बदल सकती हैं।

About the Author: अंशु सिंह
अंशु सिंह पिछले बीस वर्षों से हिंदी पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं। उनका कार्यकाल देश के प्रमुख समाचार पत्र दैनिक जागरण और अन्य राष्ट्रीय समाचार माध्यमों में प्रेरणादायक लेखन और संपादकीय योगदान के लिए उल्लेखनीय है। उन्होंने शिक्षा एवं करियर, महिला सशक्तिकरण, सामाजिक मुद्दों, संस्कृति, प्रौद्योगिकी, यात्रा एवं पर्यटन, जीवनशैली और मनोरंजन जैसे विषयों पर कई प्रभावशाली लेख लिखे हैं। उनकी लेखनी में गहरी सामाजिक समझ और प्रगतिशील दृष्टिकोण की झलक मिलती है, जो पाठकों को न केवल जानकारी बल्कि प्रेरणा भी प्रदान करती है। उनके द्वारा लिखे गए सैकड़ों आलेख पाठकों के बीच गहरी छाप छोड़ चुके हैं।
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