Special Coverage
Poems on Emergency: आपातकाल के विरोध में लिखी गईं कविताएं जिसके स्वर ने प्रतिरोध की नई धारा बहाई
Authored By: Ranjan Gupta
Published On: Tuesday, June 24, 2025
Last Updated On: Wednesday, June 25, 2025
Poems Written on Emergency: आपातकाल 1975 भारतीय लोकतंत्र का वह दौर था, जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गहरा पहरा बैठा दिया गया था. लेकिन साहित्य और कविताएं उस अंधेरे समय में भी प्रतिरोध की मशाल बनकर जलती रहीं. इमरजेंसी के खिलाफ लिखी गईं कविताएं न सिर्फ सत्ता के अन्याय के खिलाफ खड़ी रहीं, बल्कि जनता की पीड़ा, असंतोष और संघर्ष को भी स्वर देती रहीं. वैसी कविताओं को हमनें इस लेख में शामिल किया है. ये कविताएं न सिर्फ विरोध में बोली गईं बोल थी, बल्कि इसके स्वर ने क्रांति को भी जन्म दिया..
Authored By: Ranjan Gupta
Last Updated On: Wednesday, June 25, 2025
1975 में देश पर थोपे गए आपातकाल ने केवल राजनीतिक और सामाजिक ढांचे को ही नहीं, बल्कि विचारों की आज़ादी को भी जकड़ लिया था. उस समय समाचारपत्रों पर सेंसरशिप, विरोधी नेताओं की गिरफ्तारी और आम जनता की आवाज़ को दबा देने का माहौल था. लेकिन इसी चुप्पी के बीच कवियों की कलम ने प्रतिरोध की नई धारा बहाई. इन्होंने नारे नहीं, बल्कि भावनाओं और प्रतीकों के माध्यम से इमरजेंसी के दमनकारी स्वरूप पर प्रहार किया.
‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ जैसी पंक्तिया. सत्ता के क्रूर व्यवहार पर करारी टिप्पणी थीं. दुष्यंत कुमार, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे रचनाकारों ने अपनी कविता के ज़रिए तानाशाही के खिलाफ आवाज़ उठाई और साहित्य को जनता की लड़ाई का औजार बना दिया. यह लेख उन्हीं कविताओं और कवियों की झलक प्रस्तुत करता है, जिन्होंने इमरजेंसी के अंधकार में उम्मीद और प्रतिरोध की लौ जलाए रखी.
कविताएं जिसके स्वर ने क्रांति को दिया जन्म

जनतंत्र का जन्म
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली.
जनता? हां,लंबी – बड़ी जीभ की वही कसम,
“जनता,सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है.”
“सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में.
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है.
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं.
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो.
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में.
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो

हो गई है पीर पर्वत-सी
–दुष्यंत कुमार
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए.
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए.
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए.

एक बरस बीत गया
अटल बिहारी वाजपेयी (इमरजेंसी के दौरान जेल में रहते हुए)
झुलसाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अन्तर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया.
सींकचों में सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अंबर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया.
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया.
जो कल थे वे आज नहीं है
जो कल थे,
वे आज नहीं हैं.
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे.
होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा.
सत्य क्या है?
होना या न होना?
या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है.
मुझे लगता है कि
होना-न-होना एक ही सत्य के
दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर,
बुद्धि के व्यायाम हैं.
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है.
प्रत्येक नया नचिकेता,
इस प्रश्न की खोज में लगा है.
सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है.
शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा.
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है?
हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा.
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा.

विद्रोह: केदारनाथ सिंह…
आज घर में घुसा
तो वहाँ अजब दृश्य था
सुनिए — मेरे बिस्तर ने कहा —
यह रहा मेरा इस्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
वापस जाना चाहता हूँ
उधर कुर्सी और मेज़ का
एक सँयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले —
जी, अब बहुत हो चुका
आपको सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह
ज़िन्दा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है
आपने