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अमेठी का रण छोड़ रायबरेली में विरासत बचाने उतरे राहुल गांधी
Authored By: शिखा श्रीवास्तव, वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार, लखनऊ
Published On: Saturday, May 4, 2024
Last Updated On: Saturday, May 4, 2024
लंबे इंतजार और कांग्रेस के भीतर उहापोह के बाद आखिरकार राहुल गांधी अमेठी छोड़ रायबरेली से चुनाव लड़ने सामने आ गए और उन्होंने यहां से नामांकन दाखिल कर दिया। अब देखना यह है कि अपनी दादी इंदिरा गांधी और मां सोनिया गांधी की विरासत को वह किस तरह संभालते हैं...
Authored By: शिखा श्रीवास्तव, वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार, लखनऊ
Last Updated On: Saturday, May 4, 2024
रायबरेली के मैदान में राहुल गांधी। यह एक राजनेता के दायित्व से ऊपर भारतीय समाज और परंपराओं के मुताबिक एक बेटे के दायित्व को निभाने की परंपरागत पटकथा है। यह केवल एक आम संसदीय सीट भर नहीं। ये कांग्रेस का गुरूर है या यूं कहें कि विरासत है। इस विरासत को बचाने राहुल गांधी मैदान में उतर चुके हैं। राहुल पर दादी और मां की राजनीतिक विरासत और पार्टी की पारंपरिक सीट बचाने की चुनौती है।
यह चुनाव इस मायने में याद रखा जाएगा कि देश के सबसे बड़े राजनैतिक घराने का रसूख बरकरार रखने वाली इस सीट को लेकर आधा चुनाव निपट जाने तक सुर्खियां बनती-बिगड़ती रहीं। जहां सत्ता पक्ष बेचैन रहा, वहीं विपक्षी भी नजर गड़ाए रहे। मतदान से 17 दिन पहले ही रायबरेली ने जाना कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का पोता, राजीव और सोनिया गांधी का बेटा राहुल गांधी विरासत संभालने पहुंचा है।
रायबरेली सीट से नाकामी और कामयाबी दोनों ही न सिर्फ राहुल बल्कि पूरे कांग्रेस के लिए बड़े मायने रखती है। उनके इस कदम से सुदूर दक्षिण में वायनाड (केरल) में भी हलचल है। वहां के लोग भी रायबरेली के नतीजों का इंतजार करेंगे क्योंकि राहुल अगर रायबरेली और वायानाड दोनों से जीते तो बड़ा प्रश्न यह होगा की राहुल परिवार की पारंपरिक सीट रखेंगे या वायनाड। हालांकि विशेषज्ञ कह रहे हैं कि वायनाड की सीट राहुल छोड़ देंगे और यही कारण है कि उन्होंने वायनाड की पोलिंग होने तक रायबरेली से अपने को दूर रखा, ताकि वहां पर उनकी जीत सुनिश्चित हो सके।
यह प्रश्न भी उठने लगे हैं कि राहुल गांधी ने अमेठी के ऊपर पड़ोस की रायबरेली सीट को तवज्जो क्यों दी? अव्वल तो अमेठी वह भाजपा की स्मृति इरानी के मुकाबले पिछली बार (2019 में) हार चुके थे लिहाजा इस बार वहां से उतरने में खतरा था। दूसरे, रायबरेली सीट गांधी परिवार की पहचान से ज्यादा विरासत है, इसको बचाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर है। गांधी परिवार के सदस्य के न उतरने से यह सीट भी कांग्रेस की झोली से जा सकती थी। हालांकि राहुल अमेठी से भले ही नहीं लड़े लेकिन रायबरेली में लड़ते हुए अमेठी में भी पार्टी को कामयाबी दिलाने की परोक्ष जिम्मेदारी उन पर आ ही गई है।
रायबरेली की सीट बचाना रहेगा चुनौती
सोनिया गांधी यहां से 2004 से चुनाव लड़ रही हैं, लेकिन उनके जीतने का अंतर लगातार घटता जा रहा है। 2019 के चुनाव में वह 1.64 लाख मतों से अंतर से हारीं जबकि 2014 में यह अंतर 3.52 लाख था। पोलिंग बढ़ने के बावजूद कांग्रेस के खाते में मत कम आ रहे थे। इसे इस तरह समझें कि 2009 में जब पोलिंग 59 फीसदी हुई तो उन्हें 72 फीसदी से ज्यादा वोट मिले लेकिन 2019 में जब पोलिंग 67 प्रतिशत हुई तो उन्हें केवल 55 फीसदी वोटों से ही संतोष करना पड़ा। लिहाजा यहां भी सीट बचाने की एक बड़ी चुनौती कांग्रेस के सामने है।
अमेठी के उदाहरण से कांग्रेस को सीख लेनी होगी। यह सीट राहुल गांधी ने इसी तरह गंवाई थी। 2009 में उन्होंने 3.70 लाख मतों से अंतर से शानदार जीत हासिल की, जबकि 2014 में उन्होंने स्मृति इरानी को केवल एक लाख वोटों से हराया और 2019 में वह स्मृति इरानी से 50 हजार वोटों से हार गए।
आखिर रायबरेली की ‘भैया जी’ क्यों नहीं उतरीं मैदान में
रायबरेली को अपने ‘भैया जी’ यानी प्रियंका गांधी से बहुत उम्मीद थी लेकिन प्रियंका मैदान में नहीं उतरीं। राजनीतिक विशेषज्ञ इसे सही फैसला मान रहे हैं। अभी पांच चरणों का मतदान बाकी है। प्रियंका गांधी पूरे देश में चुनाव प्रचार कर रही हैं। अपने भाषणों में वह सत्ता पक्ष पर, प्रधानमंत्री पर आक्रामक तरीके से प्रहार कर रही हैं। उनके भाषण सटीक होते हैं और उन्हें लोगों से कनेक्ट करने में महारत हासिल है। देश भर में जहां-जहां मतदान अभी बाकी है उनमें बड़ी संख्या में वैसे इलाके बचे हुए हैं जहां कांग्रेस और भाजपा की सीधी लड़ाई है। उन इलाकों में प्रियंका का अधिक समय देना बेहतर रणनीति है। रायबरेली से चुनाव लड़ने से प्रियंका वहीं फंसी रह जातीं। पार्टी लंबे समय से हाशिए पर है इसलिए स्टार प्रचारकों में राहुल और प्रियंका गांधी के बाद नामों की कमी है।
पूरा देश रूबरू हुआ प्रियंका गांधी के आक्रामक तेवरों से
यदि बात पिछले लोकसभा चुनाव (2019) की करें तो प्रियंका गांधी पूरी तरह से रायबरेली और अमेठी का चुनाव संभालती थीं। यह पहला लोकसभा चुनाव है जब वह यूपी से बाहर पूरे देश में चुनाव प्रचार कर रही हैं। सक्रिय राजनीति में प्रियंका गांधी को 2019 के लोकसभा चुनाव में पूर्वी यूपी के प्रभारी के तौर पर सक्रिय राजनीति में लांच किया गया था। लेकिन प्रियंका यूपी तक ही सीमित रहीं। चुनावी दौरों के अलावा वह अपनी एक अलग शैली के लिए भी चर्चित रहीं, जिसकी तुलना गाहे-बगाहे पूर्व प्रधानमंत्री स्व़. इंदिरा गांधी से की जाती रही। दिसंबर 2019 में वह पुलिस को चकमा देकर स्कूटी पर सवार हो दारापुरी से मिलने निकलीं, अक्तूबर 2021 में लखीमपुर कांड के पीड़ितों से मिलने के लिए आधी रात में पैदल ही घर से निकलीं और सीतापुर में उन्हें गिरफ्तार कर रखा गया। सड़क पर धरना देने की उनकी रणनीति इस कदर कारगर थी कि अन्य विपक्षी पार्टियों को भी सड़क पर उतरना पड़ा लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी मेहनत वोटों में परिवर्तित नहीं हुई और कांग्रेस को बुरी तरह हार कर केवल दो सीटों पर संतोष करना पड़ा। लिहाजा प्रियंका गांधी ने यूपी से दूरी बनाई और यूपी प्रभारी के पद से उन्हें हटाया गया। इस बार वह ताबड़तोड़ चुनाव प्रचार कर रही हैं। लोगों को उनकी शैली पसंद आ रही है और वे देख पा रहे हैं दादी इंदिरा गांधी से उनकी तुलना अनायास ही नहीं है। देखना होगा कि प्रियंका गांधी की मेहनत से कांग्रेस को कितना फायदा मिलता है।
रायबरेली में कांग्रेस का घटता वर्चस्व
वर्ष | वोट मिले | वोट प्रतिशत | कुल पोलिंग प्रतिशत |
---|---|---|---|
2019 | 534918 | 55.78 | 67.4 |
2014 | 526434 | 63.80 | 66.44 |
2009 | 481490 | 72.23 | 59.99 |
2004 | 378107 | 58.75 | 58 |
आंकड़ों की नजर में अमेठी
वर्ष | वोट मिले | वोट प्रतिशत | कुल पोलिंग प्रतिशत |
---|---|---|---|
2019 | 413394 | 43.84 | 67.4 |
2014 | 408651 | 46.71 | 66.44 |
2009 | 464195 | 71.78 | 59.99 |
2004 | 390158 | 66.17 | 58 |