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अल्पसंख्यक का मतलब केवल मुसलमान ही क्यों? चुनावी राजनीति में यह मुद्दा खास कैसे बना?
Authored By: सतीश झा
Published On: Wednesday, April 2, 2025
Last Updated On: Wednesday, April 2, 2025
भारत में अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल अक्सर मुसलमानों के संदर्भ में किया जाता है, लेकिन क्या वास्तव में अल्पसंख्यक सिर्फ मुसलमान ही हैं? सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय भी संविधान द्वारा अल्पसंख्यक माने गए हैं, लेकिन राजनीतिक विमर्श में अक्सर चर्चा सिर्फ मुसलमानों तक ही सीमित क्यों रहती है? वक्फ संशोधन विधेयक, 2024 (Waqf Amendment Bill, 2024) को लेकर जिस प्रकार से नेताओं के बयान आ रहे हैं, उससे अल्पसंख्यक को लेकर नया विमर्श शुरू हो गया है.
Authored By: सतीश झा
Last Updated On: Wednesday, April 2, 2025
भारत सरकार के दिसंबर, 2024 के आंकड़ों के अनुसार, अल्पसंख्यकों की आबादी 19.3% है. सरकार ने उनके उत्थान के लिए संसाधनों पर ध्यान केंद्रित करते हुए 90 अल्पसंख्यक सघनता वाले जिलों, 710 ब्लॉकों और 66 कस्बों की पहचान की है. भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यकों का समर्थन हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है. स्वतंत्रता के बाद से, विभिन्न दलों ने इस समुदाय को अपने पक्ष में करने की कोशिश की है. हालांकि, चुनावी रणनीति में मुसलमानों को ही मुख्य रूप से अल्पसंख्यक के रूप में पेश किया जाता रहा है, जिससे अन्य अल्पसंख्यक समुदाय हाशिए पर चले गए.
कई मीडिया रिपोर्टस में जारी आंकड़ों के आधार पर बात करें, तो 1950 से 2015 के बीच भारत में हिंदुओं की जनसंख्या में 7.82 प्रतिशत की कमी आई है. 1950 में देश की कुल जनसंख्या में हिंदुओं की हिस्सेदारी 84.68 प्रतिशत थी, जो 2015 में घटकर 78.06 प्रतिशत रह गई. वहीं, 1950 में मुसलमानों की जनसंख्या का प्रतिशत 9.84 था, जो 2015 में बढ़कर 14.09 प्रतिशत हो गया. इस दौरान, 1950 की तुलना में मुसलमानों की आबादी में 43.15 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई.
अल्पसंख्यकों को अलग-थलग करने का एक प्रयास : कांग्रेस नेता गौरव गोगोई
लोकसभा में कांग्रेस के उपनेता गौरव गोगोई ने वक्फ संशोधन विधेयक (Waqf Amendment Bill, 2024) पर सरकार को घेरा. उन्होंने सवाल उठाया कि क्या यह विधेयक अल्पसंख्यक मंत्रालय ने बनाया है, या किसी अन्य विभाग ने? यह बिल आखिर आया कहाँ से? गोगोई ने कहा कि देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति ऐसी बना दी गई है कि अब सरकार को उनके धर्म का सर्टिफिकेट देना पड़ेगा. उन्होंने पूछा, “क्या सरकार अन्य धर्मों से भी प्रमाण पत्र मांगेगी कि उन्होंने पाँच साल पूरे किए हैं या नहीं? फिर इस विधेयक में ऐसा प्रावधान क्यों है?” कांग्रेस नेता ने सरकार पर धर्म के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप का आरोप लगाते हुए कहा कि यह विधेयक अल्पसंख्यकों को अलग-थलग करने का एक प्रयास है. उन्होंने इसे संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना के खिलाफ बताया और सरकार की मंशा पर सवाल खड़े किए.
मुस्लिम वोट बैंक: राजनीतिक दलों की प्राथमिकता?
भारत में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या अन्य अल्पसंख्यकों की तुलना में अधिक होने के कारण वे चुनावी समीकरणों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यही वजह है कि अधिकांश दल मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए अलग-अलग नीतियां और वादे पेश करते हैं.
मुसलमानों को परेशान करने की कोशिश : महबूबा मुफ्ती
वक्फ संशोधन विधेयक (Waqf Amendment Bill, 2024) को लेकर संसद में चल रही बहस के बीच जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने केंद्र सरकार पर तीखा हमला बोला. उन्होंने आरोप लगाया कि यह विधेयक “मुसलमानों को परेशान करने और कमजोर करने की चाल” है. महबूबा मुफ्ती ने कहा, “बीजेपी पिछले 10-11 सालों से मुसलमानों के खिलाफ काम कर रही है. पहले मुसलमानों पर हमले हुए, मस्जिदों को नुकसान पहुंचाया गया, दुकानों को जबरन बंद करवाया गया. अब वक्फ बिल लाकर हमारी संपत्तियों को जब्त करने की कोशिश हो रही है.” उन्होंने सवाल किया कि अगर सरकार मुसलमानों की वक्फ संपत्तियों को अपने नियंत्रण में लेगी, तो फिर “मुसलमान क्या करेंगे?” महबूबा मुफ्ती के इस बयान के बाद राजनीतिक हलकों में चर्चा तेज हो गई है. विपक्ष पहले से ही इस विधेयक को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठा रहा है, वहीं सत्तारूढ़ दल इसे “सुधारवादी कदम” बता रहा है.
अन्य अल्पसंख्यक समुदाय क्यों नहीं बनते चुनावी मुद्दा?
- सिख समुदाय: पंजाब में राजनीतिक रूप से प्रभावी है, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में कम फोकस रहता है.
- ईसाई समुदाय: उत्तर-पूर्व और केरल में मजबूत उपस्थिति के बावजूद, राजनीतिक बहस में अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जाता है.
- बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय: इनकी संख्या कम होने के कारण राजनीतिक दल इन्हें प्राथमिकता नहीं देते.
क्या अब बदल रहा है राजनीतिक परिदृश्य?
हाल के वर्षों में कुछ दलों ने अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की ओर भी ध्यान देना शुरू किया है. सिखों के मुद्दों पर केंद्र सरकार के फैसले, ईसाई समुदाय को विशेष योजनाएं और बौद्ध धर्मगुरुओं के साथ संवाद बढ़ाना इसके उदाहरण हैं.
“अल्पसंख्यक” शब्द का प्रयोग केवल मुसलमानों तक सीमित करना ऐतिहासिक और राजनीतिक कारणों से हुआ है, लेकिन अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की अनदेखी करना लोकतांत्रिक संतुलन के लिए उचित नहीं है. समय के साथ यह धारणा बदल सकती है, लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या भविष्य में भारतीय राजनीति में सभी अल्पसंख्यक समुदायों को समान प्रतिनिधित्व मिल पाएगा या नहीं?
Note : ये लेखक के अपने विचार हैं, संस्थान का इससे कोई लेना-देना नहीं है.