कांवड़ यात्राः श्रद्धा के सैलाब में बहता हजारों करोड़ का बजट, क्या हमने कभी इसके पीछे की अर्थव्यवस्था को देखा है?

कांवड़ यात्राः श्रद्धा के सैलाब में बहता हजारों करोड़ का बजट, क्या हमने कभी इसके पीछे की अर्थव्यवस्था को देखा है?

Authored By: सतीश झा

Published On: Wednesday, July 16, 2025

Last Updated On: Wednesday, July 16, 2025

कांवड़ यात्रा में उमड़ा श्रद्धालुओं का सैलाब, लेकिन क्या आप जानते हैं इसके पीछे हर साल हजारों करोड़ की अर्थव्यवस्था सक्रिय होती है? एक आस्था और अर्थ का अनोखा संगम.
कांवड़ यात्रा में उमड़ा श्रद्धालुओं का सैलाब, लेकिन क्या आप जानते हैं इसके पीछे हर साल हजारों करोड़ की अर्थव्यवस्था सक्रिय होती है? एक आस्था और अर्थ का अनोखा संगम.

हर साल सावन महीने में उत्तर भारत की सड़कों पर भगवा रंग का सैलाब उमड़ पड़ता है - कांवड़ यात्रा के रूप में. लगभग 5 करोड़ श्रद्धालु यानी कांवड़िए इस पवित्र यात्रा में भाग लेते हैं. इसका मुख्य केंद्र हरिद्वार होता है. वहीं से कांवड़िए गंगा जल लेकर महादेव को अर्पित करने के लिए अपने-अपने मान्य शिवालयों के लिए निकल पड़ते हैं. लेकिन इस धार्मिक उत्सव के पीछे एक गहरी आर्थिक कहानी भी छिपी हुई है, जिस पर कम ही ध्यान दिया जाता है.

Authored By: सतीश झा

Last Updated On: Wednesday, July 16, 2025

Kanwar Yatra: सावन माह में शुरू होने वाली कांवड़ यात्रा न केवल धार्मिक आस्था का महापर्व है, बल्कि यह हरिद्वार सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कई शहरों के लिए बड़ा आर्थिक अवसर भी बन चुकी है. हर वर्ष करोड़ों श्रद्धालु ‘बोल बम’ के जयघोष के साथ गंगा जल लेने के लिए हरिद्वार पहुंचते हैं. इससे जुड़े व्यापार का आंकड़ा हजारों करोड़ रुपए तक पहुंच जाता है.

 एक कांवड़ की कीमतः 1000 से लेकर 3 लाख तक

जानकारों के अनुसार, एक सामान्य कांवड़ की कीमत ₹1000 से ₹20,000 तक होती है. वहीं, लगभग 1% कांवड़िए ऐसे भी हैं, जो ₹1 लाख से ₹3 लाख तक की विशेष सजावटी, इलेक्ट्रॉनिक और हाईटेक कांवड़ लेकर यात्रा करते हैं. यदि औसतन एक कांवड़ की कीमत ₹5000 मानी जाए, तो 5 करोड़ कांवड़ियों द्वारा किया गया खर्च लगभग ₹2,50,000 करोड़ (₹2.5 लाख करोड़) तक पहुंचता है – जो कि देश के कई बजट कार्यक्रमों से बड़ा है.

 कुल बजट ₹5000 करोड़ से भी अधिक

यह आंकड़ा केवल कांवड़ की खरीद का है. इसमें यात्रा के दौरान खर्च होने वाला भोजन, पानी, ट्रांसपोर्ट, सजावट, ध्वनि सिस्टम, डीजे, बैंड, कपड़े, तंबू, बिजली आदि का अनुमान नहीं लगाया गया है. यदि इन सबको जोड़ा जाए, तो कांवड़ यात्रा से जुड़ी अर्थव्यवस्था ₹5000 करोड़ से भी ऊपर पहुंच सकती है.

 कौन बना रहा है कांवड़?

अब एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि कई टीवी रिपोर्ट्स और सोशल मीडिया चैनलों के अनुसार, हरिद्वार के निकट ज्वालापुर क्षेत्र में, कांवड़ बनाने का बड़ा काम उन समुदायों के हाथ में है, जो सनातन परंपराओं को नहीं मानते. कुछ जगहों पर यह भी बताया गया कि इन लोगों में तथाकथित थूक थेरेपी जैसी मान्यताओं के समर्थक शामिल हैं.

 अस्थायी दुकानों से लेकर होटलों तक बढ़ती है मांग

हरिद्वार, ऋषिकेश, मुजफ्फरनगर, मेरठ, सहारनपुर, बिजनौर, और रोहतक जैसे शहरों में होटल, धर्मशालाएं, रेस्तरां, सड़क किनारे अस्थायी दुकानें, और ट्रांसपोर्ट सेवा से जुड़े व्यापारियों को भारी लाभ होता है. विशेषकर कांवड़, भगवा वस्त्र, तिरपाल, डीजे साउंड सिस्टम, झंडे, पूजा सामग्री, टॉर्च, जूते-चप्पल, फल-फूल आदि की बिक्री कई गुना बढ़ जाती है. कांवड़ यात्रा अस्थायी और मौसमी रोजगार का भी बड़ा माध्यम है. टैंपो चालकों, ऑटो रिक्शा चालकों, टेंट लगाने वालों, खाने के स्टॉल लगाने वालों, साफ-सफाई करने वालों और सुरक्षा प्रबंध से जुड़े लोगों को सीजनल रोजगार मिलता है.

श्रद्धा के साथ बढ़ती है अर्थव्यवस्था की रफ्तार

श्रावण मास में जहां एक ओर शिवभक्त भोलेनाथ की आराधना में लीन रहते हैं, वहीं दूसरी ओर यह महीना मंदिरों और उससे जुड़े आर्थिक गतिविधियों के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है. देशभर में विशेष रूप से उत्तर भारत के काशी, हरिद्वार, देवघर, उज्जैन, पटना, गया और बासुकीनाथ जैसे प्रमुख शिवधामों में लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं, जिससे मंदिरों से जुड़ा हजारों करोड़ का कारोबार खड़ा हो जाता है. सावन में फूल, बेलपत्र, धतूरा, गंगाजल, पूजा थाल, कपड़े, अगरबत्ती, मिट्टी के शिवलिंग, नाग-नागिन की मूर्तियां, और प्रसाद जैसी वस्तुओं की मांग कई गुना बढ़ जाती है. इसके चलते स्थानीय दुकानदारों को बेहतर आमदनी होती है.

इस पवित्र महीने में मंदिरों के आसपास लगने वाले अस्थायी स्टॉल, फेरीवाले, और फूड स्टॉल वाले व्यापारी अच्छी कमाई करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, बड़े तीर्थस्थलों पर रोज़ाना 5 से 10 लाख रुपए तक का लेन-देन केवल मंदिरों के आसपास ही होता है. श्रावण में दान-पुण्य का विशेष महत्व माना जाता है, जिसके चलते भक्त मंदिरों में बड़ी संख्या में नकद और वस्त्र दान करते हैं. कई मंदिरों में रोज़ाना लाखों की राशि भक्तों द्वारा दान स्वरूप प्राप्त होती है, जो पूरे महीने में करोड़ों तक पहुंच जाती है.

आत्ममंथन का समय

श्रद्धा और आस्था के इस महान पर्व को केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी समझने की आवश्यकता है. क्या हमारी आस्था केवल भावनाओं तक सीमित रहेगी या हम इसके साथ जागरूकता और आत्मनिर्भरता को भी जोड़ पाएंगे? कांवड़ यात्रा न केवल धार्मिक भावना का प्रतीक है, बल्कि यह स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति देने वाला पर्व भी बन चुका है. हरिद्वार जैसे तीर्थस्थलों के लिए यह हर वर्ष एक आर्थिक संजीवनी लेकर आता है, जिससे लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी जुड़ी होती है. कांवड़ में आस्था भी है, और अर्थव्यवस्था की शक्ति भी.

About the Author: सतीश झा
सतीश झा की लेखनी में समाज की जमीनी सच्चाई और प्रगतिशील दृष्टिकोण का मेल दिखाई देता है। बीते 20 वर्षों में राजनीति, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाचारों के साथ-साथ राज्यों की खबरों पर व्यापक और गहन लेखन किया है। उनकी विशेषता समसामयिक विषयों को सरल भाषा में प्रस्तुत करना और पाठकों तक सटीक जानकारी पहुंचाना है। राजनीति से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों तक, उनकी गहन पकड़ और निष्पक्षता ने उन्हें पत्रकारिता जगत में एक विशिष्ट पहचान दिलाई है
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