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बिहार की राजनीति में कुर्मी वर्ग का दबदबा, सीएम नीतीश कुमार का खास फोकस इसी पर
बिहार की राजनीति में कुर्मी वर्ग का दबदबा, सीएम नीतीश कुमार का खास फोकस इसी पर
Authored By: सतीश झा
Published On: Saturday, May 3, 2025
Last Updated On: Saturday, May 3, 2025
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं. इन्हीं में एक प्रभावशाली समुदाय है कुर्मी, जो राज्य की सत्ता की चाभी बनता जा रहा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) खुद इसी वर्ग से आते हैं और उन्होंने वर्षों से कुर्मी वोटबैंक को सधे हुए तरीके से अपने पक्ष में बनाए रखा है. अब एक बार फिर नीतीश कुमार का फोकस इस वर्ग पर बढ़ता हुआ दिख रहा है,
Authored By: सतीश झा
Last Updated On: Saturday, May 3, 2025
Nitish Kumar Kurmi strategy: हाल ही में हुई जदयू (JDU) की संगठनात्मक बैठकों और राजनीतिक नियुक्तियों में यह साफ देखा गया है कि पार्टी नेतृत्व कुर्मी समाज को और मजबूती से साधने की रणनीति पर काम कर रहा है. नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को अच्छी तरह पता है कि अगड़ी जातियों के साथ-साथ ओबीसी में कुर्मी वोटर्स की एकजुटता उनकी सत्ता को स्थायित्व देने में अहम भूमिका निभाती रही है.
राज्यसभा में मनोयन और संगठन में नियुक्तियां— इन दोनों ही स्तरों पर नीतीश कुमार ने कुर्मी चेहरों को प्राथमिकता दी है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह संकेत 2025 के विधानसभा चुनावों की तैयारी का हिस्सा है, जहां जदयू एक बार फिर सामाजिक समीकरणों के सहारे अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है.
नीतीश कुमार को मिलता रहा है लगातार समर्थन
1960 से 1979 के दशक के बीच इस समुदाय के कई लोग नौकरशाही, शिक्षा, इंजीनियरिंग और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं. आज भी बिहार के लगभग सभी जिलों में कुर्मी समाज की मजबूत उपस्थिति बनी हुई है . इस समुदाय की खासियत इसकी विविधता में भी दिखती है. अवधिया, समसवार, जसवार जैसी उपजातियों के साथ यह समाज सामाजिक और राजनीतिक रूप से संगठित रूप में उभरा है.
बिहार की राजनीति में कुर्मी की भागीदारी
राज्य सरकार द्वारा जारी किए गए आधिकारिक जातीय सर्वेक्षण के अनुसार, कुर्मी जाति से जुड़े लोगों की संख्या राज्य की कुल जनसंख्या का 2.87% बताई गई है। यह आंकड़ा लगभग 40 लाख की आबादी को दर्शाता है. लेकिन तस्वीर इससे कहीं बड़ी है. कुर्मी जाति की वास्तविक सामाजिक शक्ति का अंदाजा तब लगाया जा सकता है जब इसमें आने वाली तीन दर्जन से ज्यादा उपजातियों को शामिल किया जाए. अवधिया, समसवार, जसवार, पटेल, कुशवाहा आदि जैसी उपजातियां सामाजिक रूप से भले अलग दिखती हों, लेकिन व्यापक स्तर पर ये सभी एकजुट राजनीतिक व्यवहार करती हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि इन उपजातियों को मिलाकर कुल प्रभावशाली आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का 22% से 24% तक हो सकती है. यानी यह समाज राजनीतिक रूप से किंगमेकर की भूमिका में है.
विधानसभा की 70 से अधिक सीटों पर असर
बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों में से करीब 10 से 12 सीटों पर अकेले कुर्मी जाति जीत या हार का फैसला तय करती है. लेकिन यदि उपजातियों को भी शामिल कर लिया जाए तो कम से कम 70 सीटें ऐसी हो जाती हैं जहां यह समूह निर्णायक भूमिका निभाता है. यह संख्या कुल विधानसभा सीटों का लगभग 30% है, जो किसी भी राजनीतिक दल के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. यही कारण है कि लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल कुर्मी समाज को साधने की रणनीति पर काम करते हैं.
यादव-लालू और कुर्मी-नीतीश का राजनीतिक समीकरण
बिहार की राजनीति में यदि यादव समाज को RJD सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) का मजबूत जनाधार कहा जाए, तो यह भी उतना ही सच है कि कुर्मी समाज की निष्ठा लंबे समय से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) के साथ रही है.
हालांकि कुछ अपवाद जरूर देखने को मिले हैं, लेकिन व्यापक रूप से देखा जाए तो कुर्मी समाज ने हर महत्वपूर्ण मोड़ पर नीतीश कुमार का साथ दिया है. चाहे चुनावी समर्थन हो या सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी—कुर्मी समाज जननायक कर्पूरी ठाकुर के विचारों से होते हुए नीतीश कुमार के नेतृत्व तक लगातार एकजुट रहा है. यह समर्थन ही नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति में स्थायित्व और नेतृत्व क्षमता प्रदान करता रहा है. कुर्मी समाज की यह भूमिका आने वाले समय में भी बिहार की राजनीति को दिशा देने में अहम बनी रहेगी.
बिहार की राजनीति में उभरता नया चेहरा
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण कोई नई बात नहीं है, लेकिन 2024 की कुर्मी एकता रैली ने एक नया अध्याय जोड़ दिया है. इस रैली ने यह स्पष्ट कर दिया कि कुर्मी समाज अब केवल एक ‘मतदाता वर्ग’ नहीं, बल्कि एक ‘नेतृत्वकर्ता वर्ग’ के रूप में खुद को स्थापित करने की दिशा में बढ़ चुका है. इस परिवर्तन का नेतृत्व कर रहे हैं—कृष्ण कुमार सिंह उर्फ मंटू सिंह पटेल. दशकों तक नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने कुर्मी समाज की राजनीतिक आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व किया. लेकिन जैसे-जैसे उनकी राजनीतिक यात्रा उत्तरार्ध में पहुंच रही है, वैसे-वैसे कुर्मी समाज को एक नया नेतृत्व चेहरा मिलता दिख रहा है—मंटू सिंह पटेल के रूप में. मंटू सिंह पटेल ने 2010 में जदयू के टिकट पर और 2020 में बीजेपी के टिकट पर जीत दर्ज की. यह उनके राजनीतिक लचीलापन और रणनीतिक सोच का संकेत है। समय और परिस्थितियों के अनुरूप उन्होंने हमेशा निर्णायक निर्णय लिए हैं, जिसने उन्हें जनप्रिय और विश्वसनीय नेता बनाया है. जब बिहार को तकनीकी रूप से सशक्त और डिजिटल बनाने की जरूरत थी, तब आईटी विभाग की जिम्मेदारी मंटू सिंह पटेल को सौंपना एक दूरदर्शी कदम साबित हुआ. उनके कार्यकाल में विभाग में गति, पारदर्शिता और नवाचार का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिला है.
BJP और RJD जैसी पार्टियां भी कुर्मी वोटबैंक को साधने की कोशिश कर रही
विशेषज्ञों का कहना है कि BJP और RJD जैसी पार्टियां भी कुर्मी वोटबैंक को साधने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की इस वर्ग में जमीनी पकड़ और सामाजिक कार्यों में उनकी सक्रियता उन्हें बढ़त दिलाती है.
अब देखना होगा कि नीतीश कुमार की यह रणनीति आने वाले चुनावों में उन्हें कितना लाभ पहुंचाती है. फिलहाल, इतना तय है कि बिहार की सत्ता की गणित में कुर्मी समाज एक बार फिर केंद्र में आ गया है और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसे पूरी तरह से भुनाने में जुटे हैं.