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यूपी से कांग्रेस ने किया यह वाकआउट, क्या क्षेत्रीय दलों के सामने अब टिक नहीं पा रही है कांग्रेस !
यूपी से कांग्रेस ने किया यह वाकआउट, क्या क्षेत्रीय दलों के सामने अब टिक नहीं पा रही है कांग्रेस !
Authored By: सतीश झा
Published On: Monday, October 28, 2024
Updated On: Monday, October 28, 2024
उत्तर प्रदेश उपचुनाव में जिस प्रकार से कांग्रेस ने एक भी सीट पर अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किए गए हैं, उसको लेकर प्रदेश से लेकर केंद्र तक की राजनीति में कई सवाल उठ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के सामने खुद को निसहाय महसूस कर रही है ? वह भी तब जब नेता प्रतिपक्ष और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का संसदीय क्षेत्र अमेठी इसी उत्तर प्रदेश में है।
इन दिनों महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों का माहौल गरम है, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की नौ विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव की हो रही है। इसका कारण यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति का असर पूरे देश पर पड़ता है। इन नौ सीटों के परिणाम से कई सियासी समीकरण बन सकते हैं या बिगड़ सकते हैं।
इस उपचुनाव में एक ओर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (CM Yogi Adtiyanath) के राजनीतिक भविष्य पर नज़र है, तो दूसरी ओर 2027 में सत्ता में आने का सपना देख रहे सपा प्रमुख अखिलेश यादव के राजनीतिक समीकरण भी इन्हीं सीटों से तय हो सकते हैं। लेकिन सबसे चौंकाने वाली चाल कांग्रेस ने चली है, जिसने अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) पर चुनावी जिम्मेदारी छोड़कर सियासी खेल को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की है। कांग्रेस ने अखिलेश को अकेले चुनाव में उतरने दिया है, जिससे परिणाम चाहे जो भी हो, कांग्रेस इसका राजनीतिक लाभ उठाने का मौका पा सकती है। अगर सपा जीतती है, तो कांग्रेस त्याग की बात करेगी और 2027 में अपने हिस्से की मांग करेगी। वहीं, अगर सपा हारती है, तो कांग्रेस यह साबित करने की स्थिति में होगी कि अकेले सपा के बूते यूपी की राजनीति संभाली नहीं जा सकती।
लोकसभा चुनाव (Loksabha Election) में सपा ने 37 सीटें जीतकर उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी का तमगा हासिल किया, जबकि कांग्रेस (Congress) भी छह सीटों तक पहुंच गई। इससे उम्मीद की जा रही थी कि यूपी के उपचुनाव में कांग्रेस कम से कम दो सीटों पर चुनाव लड़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस ने यूपी में मैदान छोड़ने का फैसला किया है, जो उसकी रणनीतिक समझ का हिस्सा दिखता है। कांग्रेस का यह कदम सियासी गलियारों में बहस का मुद्दा बना हुआ है कि यह निर्णय उसे लाभ पहुंचाएगा या नुकसान।
असल में कांग्रेस उपचुनाव में पांच सीटों पर लड़ना चाहती थी, लेकिन अखिलेश यादव ने उन्हें यह सीटें देने से इनकार कर दिया। कांग्रेस को भी समझ थी कि इन सीटों पर उसका प्रभाव सीमित है और चुनाव लड़ने पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो सकती है। इस बार कांग्रेस ने कार्यकर्ताओं को यह संदेश देने के लिए सपा पर दबाव बनाया कि वह भी मैदान में है, लेकिन 2027 की सौदेबाजी के लिए उसने उपचुनाव से हटना ही बेहतर समझा।
दूसरी ओर, भाजपा के लिए भी यह उपचुनाव एक चुनौतीपूर्ण अवसर है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यह संदेश देना चाहते हैं कि उनके समर्थक उम्मीदवारों के चुनावी जीत की संभावना अधिक है।
कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय दृष्टिकोण में क्षेत्रीय दलों का समर्थन लेना उचित समझा है, खासकर सपा का, क्योंकि उसे यूपी में मजबूत पैर जमाने की जरूरत है। यही कारण है कि उसने इस बार उपचुनाव से खुद को दूर रखा है और सपा को पूरा दायित्व सौंपा है। अगर सपा सफल नहीं होती, तो कांग्रेस यह कहने की स्थिति में रहेगी कि लोकसभा चुनाव में उसकी उपस्थिति ने ही सपा को बेहतर नतीजे दिलाए थे।
कांग्रेस के लिए यह रणनीति नई नहीं है। राजीव गांधी के समय से ही कांग्रेस भाजपा को रोकने के लिए त्याग करने को तैयार रही है, जो उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिल रहा है। परंतु, कांग्रेस का समर्थन वोटरों को बनाए रखने में असफल हो रहा है, और बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र सहित विभिन्न राज्यों में वह क्षेत्रीय दलों के भरोसे रहने को मजबूर हो गई है। इन राज्यों में कांग्रेस का असर कम हो गया है, और यह क्षेत्रीय क्षत्रप कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती बन रहे हैं।
इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के समय में कांग्रेस राज्यों में सरकारें बनाने-गिराने की ताकत रखती थी, लेकिन अब कांग्रेस की भूमिका भाजपा (BJP) को रोकने तक ही सीमित रह गई है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस आज क्षेत्रीय क्षत्रपों के सामने मजबूर हो गई है, क्योंकि जहां-जहां उसने इनका साथ नहीं लिया, उसे हार का सामना करना पड़ा। हाल में हरियाणा चुनाव इसके उदाहरण हैं।